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किरण २ ]
करके परमें दुःख-सुख के उत्पादनका निमित्तमात्र होने से पाप के बन्धकी एकान्त मान्यताको सदोष सूचित किया है उसी प्रकार इस कारिकामें भी वीतराग मुनि और विद्वान् ऐसे दो अबन्धक व्यक्तियोंमें बन्धका प्रसङ्ग उपस्थित करके स्त्र (निज) में दुःख-सुख के उत्पादनका निमित्तमात्र होनेसे पुण्य पाप के बन्धकी एकान्त मान्यताको सदोष बतलाया है; जैसा कि अष्टसहस्रीकार श्रीविद्यानन्द या चायेंके निम्न टीका- वाक्य से भी कट है
"स्वस्मिन् दुःखोत्पादनात् पुण्यं सुखो - त्पादनात पापमिति यदीष्यते तदा वीतरागो विद्वांश्च मुनिस्ताभ्यां पुण्यपापाभ्यामात्मानं युज्यान्निमित्तसद्भावात्, वीतरागस्य कायक्लेशादिरूप दुःखोत्पचेर्विदुषस्तत्वज्ञान सन्तोषलक्षणसुखोत्पत्त स्तन्निमित्तत्वात ।"
इसमें वीतराग कायक्लेशादिरूप दुःखकी उत्प त्तिको और विद्वान्के तन्त्रज्ञान-सन्तोष लक्षण सुखकी उत्पत्तिको अलग अलग बतलाकर दोनों (वीतराग और विद्वान् ) के व्यक्तित्वको साफ तौर पर अलग घोषित कर दिया है । और इसलिये वीतरागका अभिप्राय यहां उस छद्मस्थ वीतरागी मुनिसे है जो राग द्वेषको निवृत्तिरूप सम्यक् चारित्रके अनुष्ठान में तत्पर होता है - केवलीसे नहीं - और अपनी उस चारित्र-परिणतिके द्वारा बन्धको प्राप्त नहीं होता । और विद्वानका अभिप्राय उस सम्यग्दृष्टि अन्तरात्मा से है जो तत्वज्ञानके अभ्यास - द्वारा सन्तोष-सुग्वका अनुभव करता है और अपनी उस सम्यग्ज्ञान
रत्नकरण्डके कर्तृत्व विषयपर मेरा विचार और निय
ॐ अन्तरात्माके लिये 'विद्वान्' शब्दका प्रयोग श्राचार्य पूज्यपादने अपने समाधितन्त्रके 'त्यक्त्वारोपं पुनविद्वान् प्राप्नोति परमं पदम्' इस वाक्यमें किया है और स्वामी समन्तभद्रने 'स्तुत्यान्न त्वा विद्वान् सततमभिपूज्यं नमिजिनम्' तथा 'त्वमसि विदुषा मोक्षपदवी' इन स्वयम्भूस्तोत्रके वाक्योंद्वारा जिन विद्वानोंका उल्लेख किया है वे भी अन्तरात्मा ही हो सकते हैं।
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परिणतिके निमित्तसे बन्धको प्राप्त नहीं होता । वह अन्तरात्मा मुनि भी हो सकता और गृहस्थ भी; परन्तु परमात्मस्वरूप सर्वज्ञ अथवा आप्त नहीं ।
अतः इस कारिकामें जब केवली प्राप्त या सर्वज्ञका कोई उल्लेख न होकर दूसरे दो सचेतन प्राणियों का उल्लेख है तब रत्नकरण्डके उक्त छठे पद्यके साथ इस कारिकाका सर्वथा विरोध कैसे घटित किया जा सकता है ? नहीं किया जा सकता - खासकर उस हालत में जब कि मोहादिकका अभाव और अनन्त - ज्ञानादिकका सद्भाव होनेसे केवली में दुःखादिककी वेदनाएँ वस्तुतः बनती ही नहीं और जिसका ऊपर यादि कर्मों के अभाव में साता - असातावेदनीय-जन्य कितना ही स्पष्टीकरण किया जा चुका है। मोहनीसुख दुःखकी स्थिति उस छायाके समान औपचारिक होती है - वास्तविक नहीं-जो दूसरे प्रकाशके सामने आते ही विलुप्त हो जाती है और अपना कार्य करने में समर्थ नहीं होती । और इसलिये प्रोफेसर साहबका दायिनी शक्तिमें अन्य अघातिया कर्मों के समान सर्वथा यह लिखना कि "यथार्थतः वेदनीयकमै अपनी फलस्वतन्त्र है" समुचित नहीं है। वस्तुतः श्रघातिया क्या, कोई भी कर्म अप्रतिहतरूप से अपनी स्थिति तथा धनुभागादिके अनुरूप फलदान कार्य करने में सर्वथा स्वतन्त्र नहीं है। किसी भी कर्मके लिये अनेक कारणोंकी जरुरत पड़ती है और अनेक निमित्तोंको पाकर कर्मों में संक्र• मरण व्यतिक्रमणादि कार्य हुआ करता है, समय से पहले उनकी निर्जरा भी होजाती है और तपश्चरणादिके बलपर उनको शक्तिको बदला भी जा सकता है। अतः कर्मों को सर्वथा स्वतन्त्र कहना एकान्त है मिथ्यास्व है और मुक्तिका भी निरोधक है ।
यहां 'धवला' परसे एक उपयोगी शङ्का-समाधान उद्धृत किया जाता है, जिससे केवलोमें क्षुधा तृषाके अभावका कारण प्रदर्शन होनेके साथ साथ प्रोफेसर साहब की इस शङ्काका भी समाधान हो जाता है कि 'यदि केवजी के सुख-दुःख की वेदना मानेवर उनके अनन्तसुख नहीं बन सकता तो फिर कर्म सिद्धान्तमें * अनेकान्त वर्ष ८, किरण १, पृष्ठ ३०