________________
वर्ष ]
अनेकान्त
६० (क) .
उन्हें अग्राह्य नहीं कहा जासकता। लक्षण और स्वरू- महत्व भी देते थे। पमें बड़ा अन्तर है-लतण-निर्देश में जहां कुछ ऐसी हालतमें प्राप्तमीमांसा ग्रन्थके सन्दर्भकी असाधारण गुणोंको ही ग्रहण किया जाता है वहां दृष्टिसे भी प्राप्त में क्षुत्पिपासादिकके अभावको विरुद्ध स्वरूपके निर्देश अथवा चिन्तनमें अशेष गणोंके लिये नहीं कहा जा सकता और तब रत्नकरण्डका उक्त गुञ्जाइश रहती है। अतः अष्टसहस्रीकारने 'विप्र- छठा पद्य भी विरुद्ध नहीं ठहरता। हां, प्रोफेसर साहब हादिमहोदय:' का जो अर्थ'शश्वग्निस्वेदत्वादिः किया ने प्राप्तमीमांसाकी हवीं गाथाको विरोधमें उपस्थित है और जिसका विवेचन ऊपर किया जा चुका है उस किया है, जो निम्न प्रकार है:पर टिप्पणी करतेहुए प्रो० साने जो यह लिखा है कि पुण्यं ध्रवं स्वतो दुःखात्पापंच सुखतो यदि । "शरीर-सम्बन्धी गुण धोका प्रकट होना न-होना वीतरागो मुनिर्विद्वांस्ताभ्यांयुञ्ज्यानिमित्ततः॥१३॥ आप्तके स्वरूप-चिन्तनमें कोई महत्व नहीं रखते" * इस कारिकाके सम्बन्धमें प्रो० सा०का कहना है कि वह ठीक नहीं है। क्योंकि स्वयं स्वामी समन्तभद्रने 'इसमें वीतराग सर्वज्ञके दुःखकी वेदना स्वीकार की गई अपने स्वयम्भूस्तोत्रमें ऐसे दूसरे कितने ही गुणोंका है जो कि कर्मसिद्धान्तको व्यवस्थाके अनुकूल है; जब चिन्तन किया है जिनमें शरीर-सम्बन्धी गुण-धर्मोके कि रत्नकरण्डके उक्त छठे पद्यमें क्षुत्पिपासादिकका साथ अन्य अतिशय भी प्रागये हैं। और इससे अभाव बतलाकर दुःखकी वेदना अस्वीकार की गई है यह और भी स्पष्ट हो जाता है कि स्वामी समन्तभद्र जिसकी संगति कर्मसिद्धान्तकी उन व्यवस्थाओं के अतिशयोंको मानते थे और उनके स्मरण-चिन्तनको साथ नहीं बैठती जिनके अनुसार केवलीके भी वेद* अनेकान्त वर्ष ७, किरण ७८, पृ० ६२
नीयकर्म-जन्य वेदनाएँ होती हैं, और इसलिये + इस विषयके सूचक कुछ वाक्य इस प्रकार है
रत्नकरण्डका उक्त पद्य इस कारिकाके सर्वथा विरुद्ध (क) शरीररश्मिप्रसरः प्रभोस्ते बालार्करश्मिच्छबिरा
पड़ता है-दोनों ग्रन्थोंका एक कर्तृत्व स्वीकार करने में लिलेप २८ । यस्याङ्गलक्ष्मीपरिवेषभिन्नं तमस्तमोरेरिव रश्मि
यह विरोध बाधक है' +। जहां तक मैंने इस कारिकाके भिन्नं, ननाश बाह्य..........." ३७ समन्ततोऽङ्गभासा ते
अर्थपर उसके पूर्वापर सम्बन्धकी दृष्टिसे और परिवेषेण भूयसा, तमो बाह्यमपाकीर्णमध्यात्मं ध्यानतेजसा
दोनों विद्वानोंके ऊहापोहको ध्यानमें लेकर विचार ६५। यस्य च मूर्तिः कनकमयीव स्वस्करदाभातपरिवेषा किया है, मुझे इसमें सर्वज्ञका कहीं कोई उल्लेख १०७। शशिरुचिशुचिशुक्ललोहित सुरभितरं विरजो निजं
मालूम नहीं होता। प्रो० साहबका जो यह कहना वपुः । तव शिवमतिविस्मयं यते यदपि च वाङ्मनसीयमी
है कि 'कारिकागत 'वीतरागः' और 'विद्वान् ' पद हितम् ११३ ।
दोनों एक ही मुनि-व्यक्तिके वाचक हैं और वह व्यक्ति (ख) नभस्तलं पल्लवयन्निव त्वं सहस्रपत्राम्बुजगर्भ- 'सर्वज्ञ' है, जिसका द्योतक विद्वान पद साथमें लगा चारः, पादाम्बुजैः पातितमारदों भूमौ प्रजाना विजहर्थ है वह ठीक नहीं है। क्योंकि पूर्वकारिकामें क भत्ये २६ । प्रातिहार्यविभवः परिष्कृतो देहतोऽपि विरतो जिस प्रकार अचेतन और अकषाय (वीतराग) ऐसे भवानभूत् ७३ । मानुषी प्रकृतिमभ्यतीतवान देवतास्वपि दो प्रबन्धक व्यक्तियों में बन्धका प्रसङ्ग उपस्थित च देवता यतः ७५ । पूज्ये मुहुः प्राञ्जलिदेवचक्रम् ७६ । + अनेकान्त वर्ष ८, किरण ३, पृ० १३२ तथा सर्वशज्योतिषोद्भुतस्तावको महिमोदयः कं न कुर्यात्प्रणम्र वर्ष, कि० १, पृ०६ ते सत्वं नाथ सचेतनम् ६६ । तव वागमृतं श्रीमत्सर्वभाषा- अनेकान्त वर्ष ७, कि० ३-४, पृ० ३४ स्वभावकं प्रीण्यत्यमृतं यद्वत्प्राणिनो व्यापि संसदि । * पापं ध्रुवं परे दुःखात् पुण्यं च सुखतो यदि । भरपि रम्या प्रतिपदमासीज्जातविकोशाम्बुजमृदुहासा १०८। श्रचेतनाऽकपायौ च बध्येयातां निमित्ततः ||२||