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________________ किरण २] - रत्नकरण्ड के कर्तृत्व-विषयमें मेरा विचार और निर्णय ज्ञानको प्रवृत्ति होकर केवलज्ञानका विरोध उपस्थित नहीं पाया जाता जिससे प्रन्थकारकी दृष्टिमें उन होगा क्योंकि केवलज्ञान और मतिज्ञानादिक युगपत् अतिशयोंका केवली भगवानमें होना अमान्य सममा नहीं होते। जाय। प्रन्थकार महोदयने 'मायाविष्वपि दृश्यन्ते' (ङ) सुधादिकी पीडाके वश भोजनादिकी प्रवृत्ति तथा 'दिव्यः सत्यः दिवौकस्स्वप्यास्ति' इन वाक्यमि यथाख्यातचारित्रकी विरोधिनी है। भोजनके समय , प्रयुक्त हुए 'अपि' शब्दके द्वारा इस बातको स्पष्ट घोषित मुनिको प्रमत्त (छठा) गुणस्थान होता है और केवली कर दिया है कि वे अहत्केवली में उन विभूतियों तथा भगवान १३ वें गुणस्थानवर्ती होते हैं जिससे फिर विग्रहादि महोदयरूप अतिशयोंका सद्भाव मानते हैं छठेमें लौटना नहीं बनता। इससे यथाख्यातचारित्र परन्त इतनेसे ही वे उन्हें महान (पूज्य) नहीं समझते; को प्राप्त केवलीभगवानके भोजनका होना उनकी चर्या क्योंकि ये अतिशय अन्यत्र मायाषियों (इन्द्रजालियों) प्रत और पदस्थके विरुद्ध पड़ता है। तथा रागादि-युक्त देवोंमें भी पाये जाते-भले ही इस तरह क्षुधादिकी वेदनाएँ और उनकी प्रति- स उनमें वे वास्तविक अथवा उस सत्यरूपमें न हों मा क्रिया माननेपर केवलीमें घातियाकर्मोका अभाव हो माका अभाव हा जिसमें कि वे क्षीणकषाय अर्हत्केवलीमें पाये जाते हैं। घटित नहीं हो सकेगा, जो कि एक बहुत बड़ी सैद्धा- और इसलिये उनकी मान्यताका आधार केवल आगन्तिक बाधा होगी। इसीसे सुधादिके अभावको माश्रित श्रद्धा ही नहीं है बल्कि एक दूसरा प्रबल 'घातिकमक्षयजः' तथा 'अनन्तज्ञानादिसम्बन्धजन्य' आधार वह गुणज्ञता अथवा परीक्षाकी कसौटी है बतलाया गया है, जिसके माननेपर कोईभी सैद्धान्तिक जिसे लेकर उन्होंने कितने ही प्राप्नोंकी जांच की है बाधा नहीं रहती। और इसलिये टीकाओंपरसे और फिर उस परीक्षाके फलस्वरूप वे वीर जिनेन्द्र के सुधादिका उन दोषोंके रूप में निर्दिष्ट तथा फलित होना प्रति यह कहने में समर्थ हए हैं कि 'वह निर्दोष प्राप्त सिद्ध है जिनका केवली भगवानमे अभाव होता है। आप ही हैं। (स त्वमेवासि निपि:)। साथ ही ऐसी स्थिति में रत्नकरण्डके उक्त छठेपद्यको क्षुत्पिपासादि 'युक्तिशास्त्राविरोधिवाक्' इस पदके द्वारा उस कसौटी दोषोंकी दृष्टिसे भी आप्तमीमांसाके साथ असंगत कोभी व्यक्त कर दिया है जिसके द्वारा उन्होंने प्राप्ता अथवा विरुद्ध नहीं कहा जा सकता। के वीतरागता और सवज्ञता जैसे असाधारण गुणोंकी ग्रन्थ के सन्दर्भ की जांच परीक्षा की है, जिनके कारण उनके वचन युक्ति और अब देखना यह है कि क्या ग्रन्थका सन्दर्भ स्वयं शाखसे अविरोधरूप यथार्थ होते हैं, और आगेसंक्षेप इसके कुछ विरुद्ध पड़ता है ? जहां तक मैंने प्रन्थके में परीक्षाकी तफसील भी दे दी है। इस परीक्षामें सन्दर्भकी जांच की है और उसके पूर्वाऽपर कथन-संब- जिनके आगम-वचन युक्ति-शास्त्रसे अविरोधरूप नहीं न्धको मिलाया है मुझे उसमें कहीं भी ऐसी कोई बात पाये गये उन सर्वथा एकान्तवादियोंको श्राप न मान नहीं मिली जिसके आधारपर केवलोमें क्षुत्पिपासादि. कर 'श्राप्ताभिमानदग्ध' घोषित किया है। इस तरह के सद्भावको स्वामी समन्तभद्रकी मान्यता कहा जा निर्दोष वचन-प्रणयनके साथ सर्वज्ञता और वीतरासके । प्रत्युत इसके, ग्रन्थकी प्रारम्भिक दो कारिकाओं- गता-जैसे गुणोंको प्राप्तका लक्षण प्रतिपादित किया में जिन अतिशयोंका देवागम-नभोयान-चामरादि है। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि प्राप्तमें दूसरे विभूतियोंक तथा अन्तर्बाह्य-विग्रहादि-महोदयोंके रूप- गुण नहीं होते, गुण तो बहुत होते हैं किन्तु वे लक्षमें उल्लेख एवं संकेत किया गया है और जिनमें णात्मक अथवा इन तीन गुणोंकी तरह खास तौरसे घातिक्षय-जन्य होनेसे क्षुत्पिपासादिके अभावका भी व्यावर्तात्मक नहीं, और इसलिये प्राप्तके लक्षणमें वे समावेश है उनके विषयमें एक भी शब्द ग्रन्थमें ऐसा भले ही प्राह्य न हों परन्तु प्राप्तके स्वरूप-चिन्तनमें
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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