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अनेकान्त
[ वर्ष ।
स्थिति जीवित शरीर-जैसी न रहकर मृत शरीर-जैसी उसी प्रकार युक्तिसङ्गत नहीं है जिस प्रकार कि धूमके हो जाती है, उसमें प्राण नहीं रहता अथवा जली अभावमें अग्निका भी अभाव बतलाना अथवा किसी रस्सीके समान अपना कार्य करनेकी शक्ति नहीं रहती। औषध प्रयोगमें विषद्रव्य की मारणशक्तिके प्रभावहीन इस विषयके समर्थनमें कितने ही शास्त्रीय प्रमाण हो जानेपर विषद्रव्यके परमाणुओंका ही प्रभाव प्रति
आप्तस्वरूप, सर्वार्थसिद्धि. तत्त्वार्थवार्तिक, श्लोकवा- पादन करना। प्रत्युत इसके, घातिया कर्माका अभाव तिक, श्रादिपुराण और जयधवला-जैसे प्रन्थोंपरसे होनेपर भी यदि वेदनीयकमके उदयादिवश केवलीमें पण्डित दरवारीलालजीके लेखोंमें उद्धृत किये गये सुधादिको वेदनाओंको और उनके निरसनार्थभोजनाहै जिन्हें यहां फिरसे उपस्थित करनेकी जरूरत दिके ग्रहणकी प्रवृत्तियोंको माना जाता है तो उससे मालूम नहीं होती। ऐसी स्थितिमें क्षुत्पिपासा-जैसे कितनी ही दुर्निवार सैद्धान्तिक कठिनाइयां एवं बाधाएँ दोषोंको सर्वथा वेदनीय-जन्य नहीं कहा जा सकता- उपस्थित होती हैं, जिनमें से दो तीन नमूने के वेदनीयकम उन्हें उत्पन्न करने में सर्वथा स्वतन्त्र नहीं है। तौर पर इस प्रकार हैं:
और कोई भी कार्य किसी एक ही कारणसे उत्पन्न नहीं (क) यदि असातावेदनीयके उदय बश केवली हुआ करता, उपादान कारणके साथ अनेक सहकारी को भूख-प्यासकी वेदनाएँ सताती हैं, जो कि संक्लेश कारणोंकी भी उसके लिये जरूरत हुआ करती है, उन परिणामको अविनाभाविनी हैं ,तो केवलीमें अनंत सबका संयोग यदि नहीं मिलता तो कार्य भी नहीं सुखका होना बाधित ठहरता है। और उस दुःखको हुआ करता। और इसलिये केवलीमें सुधादिका न सह सकने के कारण जब भोजन ग्रहण किया जाता अभाव माननेपर कोई भी सैद्धान्तिक कठिनाई उत्पन्न है तो अनन्तवीये भी बाधित हो जाता है-उसका नहीं होती। वेदनीयका सत्व और उदय वर्तमान कोई मूल्य नहीं रहता-अथवा वीर्यान्तरायकर्मका रहते हुए भी, आत्मामें अनन्तज्ञान-सुख-वीर्यादिका अभाव उसके विरुद्ध पड़ता है। सम्बन्ध स्थापित होनेसे वेदनीयकमका पुदल-परमाणु- (ख) यदि तुधादि वेदनाओंक उदय वश केवपुञ्ज क्षुधादि दोषोंको उत्पन्न करने में उसी तरह असमर्थ लोमें भोजनादिकी इच्छा उत्पन्न होती है तो केवलीके होता है जिस तरह कि कोई विषद्रव्य, जिसकी मारण मोहकर्मका अभाव हुआ नहीं कहा जा सकता, क्योंकि शक्तिको मन्त्र तथा औषधादिके बलपर प्रक्षीण कर इच्छा मोहका परिणाम है। और मोहके सद्भावमें दिया गया हो, मारनेका कार्य करने में असमर्थ होता केवलित्व भी नहीं बनता। दोनों परस्पर विरुद्ध हैं। है। निःसत्व हुए विषद्रव्यके परमाणुओंको जिस (ग) भोजनादिकी इच्छा उत्पन्न होनेपर केवलीमें प्रकार विषद्रव्यके ही परमाणु कहा जाता है उसी नित्य ज्ञानोपयोग नहीं बनता, और नित्यज्ञानोपयोगप्रकार निःसत्व हुए वेदनीयकमैके परमाणुओंको भी के न बन सकनेपर उसका ज्ञान छद्मस्थों (असर्वज्ञों) वेदनीयकर्मके हो परमाणु कहा जाता है, और इस के समान क्षायोपशमिक ठहरता है-क्षायिक नहीं। दृष्टिसे ही श्रागममें उनके उदयादिककी व्यवस्था की और तब ज्ञानावरण तथा उसके साथी दर्शनावरण गई है। उसमें कोई प्रकारको बाधा अथवा सैद्धान्तिक नामके घातियाकर्मोका अभाव भी नहीं बनता। कठिनाई नहीं होती- और इस लिये प्रोफेसर साहबका (घ) वेदनीयकर्मके उदयजन्य जो सुख-दुःख यह कहना कि 'सुधादि दोपोंका अभाव माननेपर होता है वह सब इन्द्रियजन्य होता है और केवलोके केवलीमें अघातियाकर्मों के भी नाशका प्रसङ्ग पाता है।। इन्द्रियज्ञानको प्रवृत्ति रहती नहीं। यदि केवलीमें * अनेकान्त वर्ष ८ किरण ४-५ पृ० १५६-१६१
तुधा-तृषादिकी वेदनाएँ मानी जाएँगी तो इन्द्रिय1 अनेकान्त वर्ष ७ किरण ७-८पृ०६२
* संकिलेसाविणाभावणीए भुक्खाए दज्झमाणस (धवला)