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किरण २]
रत्नकरण्डके केतृत्व-विषयमें मेरा विचार और निर्णय
में अकलकदेवको अष्टशती टोका भी शामिल है, यह है। घातिया कर्मके क्षय हो जानेपर इन दोनोंकी प्रतिपादित किया है कि 'दोषावरणयोोनिः' इस सम्भावना भी नष्ट होजाती है। इस तरह घातिया कर्मोंचतुर्थ-कारिका-गत वाक्य और 'स त्वमेवासि निर्दोषः' के क्षय होनेपर क्षुत्पिपासादि शेष छहों दोषोंका अभाव इस छठी कारिकागत वाक्यमें प्रयुक्त 'दोष' शब्दका होना भी अष्टसहस्री-सम्मत है, ऐसा समझना अभिप्राय उन अज्ञान तथा राग-द्वषादिक वृत्तियों चाहिये । बसुनन्दि-वृत्तिमें तो दूसरी कारिकाका से है जो ज्ञानावरणादि घातिया कर्मोंसे उत्पन्न होती भथे देते हुए, "क्षुत्पिपासाजरारुजाऽपमृत्य्वाद्यभाव: हैं और केवलीमें उनका अभाव होनेपर नष्ट हो जाती इत्यर्थः" इस वाक्यके द्वारा दुधा-पिपासादिके अभावहैं +। इस दृष्टिसे रत्नकरण्डके उक्त छठे पद्यमें को साफ तौर पर विग्रहादिमहोदयके अन्तर्ग उल्लेखित भय, स्मय, राग, द्वेष और मोह ये पाँच है, विग्रहादि-महोदयको अमानुषातिशय लिखा है दोष तो आपको प्रसङ्गत अथवा विरुद्ध मालूम नहीं तथा अतिशयको पूर्वावस्थाका अतिरेक बतलाया है। पड़ते; शेष क्षुधा, पिपासा, जरा, आतङ्क(रोग), जन्म और छठी कारिकामें प्रयुक्त हुए 'निर्दोष' शब्दके अर्थमें
और अन्तक (मरण) इन छह दोषोंको आप असंगत अविद्या-रागादिके साथ सुधादिके अभावको भी समझते हैं- उन्हें सर्वथा असातावेदनीयादि अघा- सूचित किया है । यथा:तिया कर्मजन्य मानते हैं और उनका प्राप्त केवलीमें अभाव बतलानेपर अघातिया कर्मोंका सत्व तथा उदय बर्तमान रहने के कारण सैद्धान्तिक कठिनाई महसूस करते हैं । परन्तु अष्टसहस्रोमें ही द्वितीय कारिकाके इस वाक्यमें 'अनन्तज्ञानादिसम्बन्धेन' पद'चुदा.
अन्तर्गत 'विग्रहादिमहोदयः' पदका जो अर्थ दिविरहितः' पदके साथ अपनी खास विशेषता एवं 'शश्वन्निस्वेदत्वादिः किया है और उसे 'घातिक्षयजः महत्व रखता है और इस बातको सूचित करता है कि बतलाया है उसपर प्रो० साहबने पूरी तौरपर ध्यान जब आत्मामें अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख दिया मालूम नहीं होता। 'शश्वनिःस्वेदत्वादिः पदमें और अनन्तवीर्यको आविर्भूति होती है तब उसके उन ३४ अतिशयों तथा ८ प्रातिहार्योंका समावेश है सम्बन्धसे सुधादि दोषोंका स्वत: अभाव हो जाता है जो श्रीपूज्यपाद के 'नित्यं नि:स्वेदत्व' इस भक्तिपाठ- अर्थात् उनका अभाव हो जाना उसका आनुषङ्गिक गत अर्हत्स्तोत्रमें वर्णित हैं। इन अतिशयोंमें अर्हत्- फल है-उसके लिये वेदनीय कर्मका अभाव-जैसे स्वयम्भूकी देह-सम्बन्धी जो १० अतिशय हैं उन्हें किसी दूसरे साधनके जुटने-जुटानेकी जरूरत नहीं देखते हुए जरा और रोगके लिये कोई स्थान नहीं रहती। और यह ठीक ही है। क्योंकि मोहनीयकर्मके रहता और भोजन तथा उपसर्गके अभावरूप (भुक्त्यु- साहचर्य अथवा सहायके विना वेदनीयकर्म अपना पसर्गाभाव:) जो दो अतिशय हैं उनकी उपस्थितिमें कार्य करनेमें उसी तरह असमर्थ होता है जिस तरह क्षुधा और पिपासाके लिये कोई अवकाश नहीं मिलता। ज्ञानावरणकर्मके क्षयोपशमसे उत्पन्न हुआ ज्ञान वीर्याशेष 'जन्म' का अभिप्राय पुनर्जन्मसे और 'मरण' का तरायकर्मका अनुकूल क्षयोपशम साथमें न होनेसे अभिप्राय अपमृत्यु अथवा उस मरणसे है जिसके अन- अपना कार्य करनेमें समर्थ नहीं होता; अथवा चारों न्तर दूसरा भव (संसारपर्याय) धारण किया जाता घातिया कोका अभाव हो जानेपर वेदनीयकर्म * "दोषास्तावदज्ञान-राग-द्वेषादय उक्ताः" ।
अपना दुःखोत्पादनादि कार्य करने में उसीप्रकार असमर्थ । (अष्टसहस्त्री का० ६, पृ० ६२) होता है जिस प्रकार कि मिट्टी और पानी आदिके + अनेकान्त वर्ष ,कि० ७८, पृ० ६२ विना बीज अपना अंकुरोत्पादन कार्य करने में * अनेकान्त वर्ष ७, कि० ३-४, पृ० ३१
असमर्थ होता है। मोहादिकके अभाव में वेदनीयकी