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अनेकान्त
। वर्ष
यदपि च भणामि तदपि न भणामीति दर्शनमस्त्विति अपने स्याद्वादसिद्धान्त, अनेकान्तसिद्धान्त, सप्तभङ्गी कश्चित् , सोपि पापीयान् । तथा हिसावेतराभ्या सिद्धान्त संजयसे बहुतपहलेसे प्रचलित हैं जैसे उसके मनभिलापे वस्तुनः, केवलं मूकत्वं जगत: स्यात, अहिंसा-सिद्धान्त, अपरिग्रहःसिद्धान्त, कमै सिद्धान्त विधिप्रतिषेधव्यवहारायोगात। न हि सर्वात्मनान- आदि सिद्धान्त प्रचलित हैं और जिनकेश्राद्यप्रवर्तक मिलाप्यस्वभावं बुद्धिरध्यवस्यति । न चानध्यवसेयं इस युगके तीथकर ऋषभदेव हैं और अंतिम महावीर प्रमितं नाम, गृहीतस्यापि तादृशस्यागृहीतकल्पत्वात । हैं। विश्वासहै उक्त विद्वान अपनी जैनदर्शन व स्यामच्छोचतन्यवति ।"-अष्टस० पृ० १२४ । द्वादके बारमें हुई भ्रान्तियाका पारमाजन
द्वादके बारेमें हई भ्रान्तियोंका परिमार्जन करेंगे और इससे यह साफ है कि संजयकी सदोष चतुर्भगी उसकी घोषणा कर देंगे। और दर्शनको जैनदर्शनने नहीं अपनाया। उसके २१ फरवरी १९४८] वीरसेवा मन्दिर, सरसावा
रत्नकरण्डके कर्तृत्व-विश्यमें मेरा विचार और निर्णय
[सम्पादकीय ]
( गतकिरणसे आगे) (१) रत्ककरण्डको प्राप्तमीमांसाकार स्वामी सम- प्रोफेसर साहबने प्राप्तमीमांसाकारके द्वारा अभि न्तभद्रको कृति न बतलानेमें प्रोफेसर साहबकी जो मत दोषके स्वरूपका कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं कियासबसे बड़ी दलील है वह यह है कि 'रत्नकरण्डके अपने अभिप्रायानुसार उसका केवल कुछ संकेत ही 'सिपासा' नामक पद्यमें दोषका जो स्वरूप सम- किया है। उसका प्रधान कारण यह मालूम होता है माया गया है वह प्राप्तमीमांसकारके अभिप्रायानुसार कि मूल आप्तमीमांसामें कहीं भी दोषका कोई स्वरूप हो ही नहीं सकता-अर्थात् आप्तमीमांसाकारका दोष दिया हुआ नहीं है। 'दोष' शब्दका प्रयोग कुल पांच के स्वरूप-विषय में जो अभिमत है वह रत्नकरण्डके कारिकाओं नं०४६ ५६, ६२, ८० में हुआ है जिनउक्त पद्यमें वर्णित दोष-स्वरूपके साथ मेल नहीं खाता- मेंसे पिछली तीन कारिकाओं में बुद्धयसंचरदोष, वृत्तिविरुद्ध पड़ता है, और इसलिये दोनों ग्रन्थ एक हो दोष और प्रतिज्ञा तथा हेतुदोषका क्रमश: उल्लेख है, आचार्यकी कृति नहीं हो सकते। इस दलीलको प्राप्तदोषसे सम्बन्ध रखनेवाली केवल ४थी तथा ६ठो चरितार्थ करने के लिये सबसे पहले यह मालुम होनेकी कारिका ही है। और वे दोनों ही 'दोष के स्वरूप जरूरत है कि आप्तमीमांसाकारका दोषके स्वरूपः कथनसे रिक्त हैं। और इसलिये दोषका अभिमत विषयमें क्या अभिमत अथवा अभिप्राय है और उसे स्वरूप जानने के लिये आप्तमीमांसाकी टीकाओं तथा प्रोफेसर साहबने कहांसे अवगत किया है?-मल प्राप्तमीमांसाकारकी दूसरी कृतियोंका आश्रय लेना प्राप्तमीमांसापरसे ? आप्तमीमांसाकी टोकाओंपरसे? होगा। साथ ही प्रन्थके सन्दर्भ अथवा पूर्वापर अथवा प्राप्तमीमांसाकारके दूसरे प्रन्थोंपरसे? और कथन सम्बन्धको भी देखना होगा । उसके बाद यह देखना होगा कि रत्नकरण्डके 'क्षुलि टीकाओंका विचारपासा' नामक पद्यके साथ मेल खाता अथवा सङ्गत प्रोफेसर साहबने ग्रन्थसन्दर्भके साथ टोकाओंका बैठता है या कि नहीं।
आश्रय लेते हुए, अष्टसहस्रीटीकाके आधारपर, जिस