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किरण २ ]
संजय वेलहिपुत्त और स्याद्वाद
नमक-मिर्च, नमक-खटाई, मिर्च-खटाई और नमक- (५) देवदत्त श्रवक्तव्य है- एक साथ पिता-पुत्रा. मिर्च-खटाई-इनसे ज्यादा या कम नहीं । इन संयोगी दि दोनों अपेक्षाओंसे कहा न जा सकनेसे- 'स्यात् चार स्वादों में मूल तीन स्वादोंको और मिला देनेसे देवदत्तः श्रवक्तव्यः ।। कुल स्वाद सात ही बनते हैं। यही सप्तभङ्गोंकी बात (५) देवदत्त पिता'है-श्रवक्तव्य है- अपने है। वस्तुमें यों तो अनन्तधमे हैं. परन्तु प्रत्येक धमको पुत्रको अपेक्षा तथा एक साथ पिता-पुत्रादि दोनों लेकर विधि-निषेधकी अपेक्षासे सात ही धर्म व्यव- अपेक्षाओंसे कहा न जा सकनेसे-'स्यात् देवदत्तः स्थित हैं-सत्वधर्म, असत्वधर्म, सत्वामत्वोभय, पिता अस्त्यवक्तव्यः । अवक्तव्यत्व, सत्वावक्तव्यत्व, अमत्वावक्तव्यत्व और (६) देवदत्त 'पिता नहीं है-श्रवक्तव्य है'-अपने सत्वासत्वावक्तव्यत्व। इन मातसे न कम हैं और न पिता मामा श्रादिकी अपेक्षा और एक साथ पिता ज्यादा। अत एव शङ्काकारोंको सात ही प्रकार के पुत्रादि दोनों अपेक्षाओंसे कहा न जा सकनेसेसन्देह, सात ही प्रकारकी जिज्ञासाएं. मात ही प्रकार के स्थात् देवदत्तः नास्त्यवक्तव्यः । प्रश्न होते हैं और इसलिये उनक उत्ता वाक्य मातही (७) 'देवदत्त पिता' है और नहीं है तथा श्रवहोते हैं, जिन्हें सप्तमग या सप्तभङ्गीके नामसे कहा क्तव्य है'- क्रमसे विवक्षित पिता-पुत्रादि दोनोंकी जाता है। इस तरह जैनोंकी सप्तभङ्गी उपपत्तिपूर्ण अपेक्षासे और एक साथ विवक्षित पिता-पुत्रादि दोनों ढङ्गसे सुव्यवस्थित और सुनिश्चित है। पर संजयकी अपेक्षाओंसे कहा न जा सकनेसे- 'स्यात् देवदत्तः उपर्युक्त चतुर्भङ्गीमें कोई भी उपपत्ति नहीं है। उसन पिता अस्ति नास्ति चावक्तव्यः।
प्रश्नोंका जवाब नहीं कह सकता' में ही दिया है यह ध्यान रहे कि जैनदर्शनमें प्रत्येक वाक्यमें और जिसका कोई भी हेतु उपस्थित नही किया, और उसके द्वारा प्रतिपाद्य धर्मका निश्चय कराने के लिये इसलिये वह उनके विपय में अनिश्चित है।
'एव' कारका विधान अभिहित है जिसका प्रयोग राहुल जीने जो उपर जैनोंकी सप्तमङ्गी दिखाई है वह नयविशारदाके लिये यथेच्छ है-वे करें चाहे न करें। भ्रमपूर्ण है। हम पहले कह आये हैं कि जैनदर्शनमें न करने पर भी उसका अध्यवसाय वे कर लेते हैं । 'स्याद्वाद'के अन्तगत स्यान' शब्दका अर्थ हो सकता राहुलजो जब 'स्यान्' शब्द के मूलाथक समझने में ही है। ऐसा सन्देह अथवा भ्रमरूप नही है उसका तो भारी भूल करगये तब स्याद्वादको भगियोंके मेल-जोल कञ्चिन् (किसी एक अपेक्षास) अथे है जो निर्णयरूप करनेमे भूले कर ही सकते थे और उसीका परिणाम है। उदाहरणार्थ देवदत्तको लीजिये, वह पिता-पुत्रादि है कि जैनदर्शनके सप्तभंगोंका प्रदशन उन्होंने ठीक अनेक धभरूप है। यदि जैनदर्शनसे यह प्रश्न किया तरह नही किया। हमें आशा है कि वे तथा स्याद्वादजाय कि क्या देवदत्त पिता है ? तो जैनदशन स्याद्वाद के सम्बन्धमें भ्रान्त अन्य विद्वान् भी जैनदशनके द्वारा निम्न प्रकार उत्तर देगा --
स्याद्वाद और सप्तभंगोको ठीक तरहसे ही समझने (१) देवदत्त पिता है-अपने पुत्रको अपेक्षासे- और उल्लेख करनका प्रयत्न करगे। 'स्यात देवदत्तः पिता अस्ति।
___ यदि संजय के दर्शन और चतुर्भगीको ही जैन (२) देवदत्त पिता नहीं है-अपने पिता-मामा दर्शनमें अपनाया गया होता तो जैनदाशनिक उसके आदिकी अपेक्षासे-क्योंकि उनकी अपेक्षासे तो वह दर्शनका कदापि आलोचन न करते । अष्टशती और पुत्र, भानजा आदि है-'स्यात् देवदत्त: पिता नास्ति। अष्टसहस्रीमें अकलंकदेव तथा विद्यानन्दने इस
(३) देवदत्त पिता है और नहीं है- अपने पुत्र- दर्शनकी जैसी कुछ कड़ी आलोचना करके उसमें दोषोंकी अपेक्षा और अपने पिता-मामा आदिकी अपेक्षा का प्रदर्शन किया है वह देखते ही बनता है। यथासे-'स्यात् देवदत्त: पिता अस्ति च नास्ति च। 'तहेयस्तीति न भणामि, नास्तीति च न भणामि.