________________
वर्ष २
अनेकान्त
६० (ग)
केवलोके साता और असाता वेदनीय कर्मका उदय मैंने स्वयम्भूस्तोत्रादि दूसरे मान्य ग्रन्थोंकी छानबीन माना ही क्यों जाता है और वह इस प्रकार है- को है, मुझे उनमें कोई भी ऐसी बात उपलब्ध नहीं हुई “सगसहाय-पादिकम्माभावेण णिस्सत्ति- जो रत्नकरण्डके उक्त छठे पद्यके विरुद्ध जाती हो
अथवा किसी भी विषयमें उसका विरोध उपस्थित मा वएण-प्रसादावेदणीयउदयादो मुक्खा-तिसा
करती हो। प्रत्युत इसके, ऐसी कितनी ही बातें समणुप्पत्तीए णिप्फलस्स परमाणुपुजस्स समयं देखने में आती हैं जिनसे अर्हत्केवलीमें क्षुधादिपडि परिसदं(ड)तस्स कथमुदय-ववएसो ? ण, वेदनाओं अथवा दोषोंके अभावकी सूचना मिलती है। जाव-कम्म-विवेग-मेत्त-फलंदटठग उदयस्म यहां उनमें से दो चार नमूनेके तौरपर नीचे व्यक्त की फलत्तमब्भुवगमादो।"
जाती हैं:-वीरसेवामन्दिर प्रति पृ०३७५ अारा प्रति पृ०७४१
(क) स्वदोष-शान्त्या विहितात्मशान्तिः' इत्यादि
शान्ति-जिनके स्तोत्रमें यह बतलाया है कि शान्तिशङ्का-अपने सहायक घातिया कर्मोका अभाव जोडने अपने दोषोंकी शान्ति करके आत्मामें शान्ति होने के कारण निःशक्तिको प्राप्त हुए असाता वेदनीय- स्थापित की है और इसीसे वे शरणागताके लिये शांतिकमेंके उदयसे जब (केवलीमें) सुधा-तृषाकी उत्पत्ति के विधाता है। चकि शुधादिक भी दोष हैं और वे नहीं होती तब प्रतिसमय नाशको प्राप्त होनेवाले आत्मामें अशांतिके कारण होते हैं-कहा भी है कि (असातावेदनीयकर्मके) निष्फल परमाणु पुञ्जका कैसे "वधासमा नास्ति शरीरवेदना" | अत: आत्माम उदय कहा जाता है ?
शान्तिकी पूर्ण प्रतिष्ठाके लिये उनको भी शान्त किया समाधान-यह शङ्का ठीक नहीं; क्योंकि जीव किया गया है, तभी शान्तिजिन शान्तिके विधाता बने और कर्मका विवेक-मात्र फल देखकर उदयके फलपना हैं और तभोसंसार-सम्बन्धी क्लेशों तथा भयोंसे शान्ति माना गया है।
प्राप्त करने के लिये उनसे प्रार्थना की गई है। और ऐसी हालतमें प्रोफेसर साहबका वीतराग सर्वज्ञके यह ठीक हो है जो स्वयं रागादिफ दोषों अथवा दुःखको वेदनाके स्वोकारको कर्मसिद्धान्तके अनुकूल वधादि वेदनाओंसे पीडित हैं-अशान्त हैं -वह और अस्वीकारको प्रतिकूल अथवा असङ्गत बतलाना दूसरोंके लिये शान्तिका विधाता कैसे हो सकता हैं ? किसी तरह भी युक्ति-सङ्गत नहीं ठहर सकता और नहीं हो सकता। इस तरह ग्रन्थसन्दर्भके अन्तर्गत उक्त ६३वीं कारिकाको (ख) त्वं शुद्धि-शक्त्योरुदयस्य काष्ठां तुलादृष्टिसे भी रत्नकरण्डके उक्त छठे पद्यको विरुद्ध नहीं
नही व्यतीतां जिन शान्तिरूपामवापिथ' इस युक्त्यनुकहा जा सकता।
शासनके वाक्यमें वोरजिनेन्द्रको शुद्धि, शक्ति और समन्तभद्र के दूसरे ग्रन्थोंकी छानबीन
शान्तिकी पराकाष्ठाको पहुंचा हुआ बतलाया है। जो अब देखना यह है कि क्या समन्तभद्रके दूसरे शान्तिकी पराकाष्ठा(चरमसीमा)को पहुंचा हुआ हो उस किसी ग्रन्थमें ऐसी कोई बात पाई जाती है जिससे में सुधादि वेदनाओंकी सम्भावना नहीं बनती। रत्नकरण्डके उक्त 'क्षुत्पिपासा' पद्यका विरोध घटित
(ग) 'शर्म शाश्वतमाप शङ्करः' इस धर्महोता हो अथवा जो आप्त-केवली या अर्हत्परमेष्ठीमें
जिनके स्तवनमें यह बतलाया है कि धर्मनामके सुधादि दोषोंके सदभावको सूचित करतीहो। जहांतक
- अर्हत्परमेष्ठीने शाश्वत सुखकी प्राप्ति की है और इसीसे * अनेकान्त वर्ष ८, किरण २, पृ०८६ ।
वे शङ्कर-सुखके करनेवाले हैं। शाश्वतसखको