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किरण २]
साहित्य परिचय और समालोचन
६० (घ)
अवस्थामें एक क्षणके लिये भी क्षुधादि दुःखोंका है बल्कि बहुत बढी-चढी है, अनन्तदोष तो मोहनीयउदभव सम्भव नहीं। इसीसे श्रीविद्यानन्दाचार्यने कर्मके हो आश्रित रहते हैं। अधिकांश दोपोंमें मोहकी श्लोकवार्तिकमें लिखा है कि 'सुधादिवेदनोभूतौ पट ही काम किया करती है। जिन्होंने मोह कर्मका नाश नाहतोऽनन्तशर्मता" अर्थात् क्षुधादि वेदनाकी उद्भूति कर दिया है उन्होंने अनन्तदोषोंका नाश कर दिया है। होनेपर अहन्तके अनन्तसुख नहीं बनता। उन दोषोंमें मोहके सहकारसे होनेवाली क्षुधादिको
(घ) 'त्वं शम्भवः सम्भातरोगैः सन्तप्य- वेदनाएँ भी शामिल हैं, इसीसे मोहनीयके अभाव हो मानस्य जनस्य लोके' इत्यादि स्तवनमें शम्भवजिन जानेपर वेदनीयकर्मको क्षुधादि वेदनाओंके उत्पन्न को सांसारिक तृषा-रोगोंसे प्रपीडित प्राणियों के लिये उन
करने में असमर्थ बतलाया है। रोगोंकी शान्तिके अर्थ श्राकस्मिक बैद्य बतलाया है। इस तरह मूल प्राप्तमीमांसा ग्रन्थ, उसके १३ वीं इससे स्पोकि अर्हन्जिन स्वयं तपा रोगोंसे पीडित कारिका सहित प्रन्थ सन्दर्भ, अष्टसहस्री आदि नहीं होते, तभी वे दूसरोंके तृषा-रोगोंको दूर करने में टोकाओं और प्रन्थकारके दूसरे ग्रन्थोंके उपर्युक्त समर्थ होते हैं। इसी तरह 'इदं जगज्जन्म-जरान्त- विवेचनपरसे यह भले प्रकार स्पष्ट है कि रत्नकरण्डका
उक्त क्षुत्पिपासादि-पद्य स्वामी समन्तभद्रके किसी भी कात निरञ्जनां शान्तिमजीगमस्त्वं' इस वाक्य के
ग्रन्थ तथा उसके आशयके साथ कोई विरोध नहीं द्वारा उन्हें जन्म-जरा-मरणसे पीडित जगतको निरञ्जना
रखता अर्थात उसमें दोषका क्षुत्पिपासादिके अभावशान्तिकी प्राप्ति करानेवाला लिखा है, जिससे स्पष्ट है
रूप जो स्वरूप समझाया गया है वहश्राप्तमीमांसाके कि वे स्वयं जन्म-जरा-मरणसे पीडित न होकर ही नहीं; किन्तु आप्तमीमांसाकारकी दूसरी भी किसी निरञ्जना शान्तिको प्राप्त थे। निरञ्जना शान्तिमें कृतिके विरुद्ध नहीं है, बल्कि उन सबके साथ सङ्गत सुधादि वेदनाओंके लिये अवकाश नहीं रहता। है। और इसलिये उक्त पद्यको लेकर प्राप्तमीमांसा और
(ङ) 'अनन्त दोषाशय-विग्रहो-ग्रहो विप- रत्नकरण्डका भिन्न-कर्तृत्व सिद्ध नहीं किया जा गवान्मोहमयश्चिरं हृदि' इत्यादि अनन्तजित्के सकता। अतः इस विषय में प्रोफेसर साहबको प्रथम स्तोत्रमें जिस मोहपिशाचको पराजित करने का उल्लेख आपत्तिके लिये कोई स्थान नहीं रहता-वह किसी है उसके शरीरको अनन्तदोषोंका आधारभत बतायाह तरह भी समुचित प्रतीत नहीं होती। इससेस्पष्ट है कि दोषोंको संख्या कुछ इनीगिनी ही नहीं
(शेष अगनी किरणमें)
साहित्य परिचय और समालोचन १ षटखएडागम-रहस्योद्घाटन- लिखे तथा विद्वत्परिषद्ने ६३ वें सूत्रमें 'संजद' पदके
लेखक, विद्वद्वर पण्डित पन्नालाल सोनी न्याय- रहनेका निर्णय दिया इसीके सम्बन्धमें प्रस्तुत पुस्तकमें सिद्धान्तशास्त्री प्रकाशक पं० वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री सप्रमाण प्रकाश डाला गया है। सोनीजीने भनेक जैनबुकडिपो, सोलापुर । मूल्य सदुपयोग। अपत्तियों और प्रमाणों द्वारा उक्त सूत्रमें 'संजद' पद
'संजद' पदको लेकर विद्वानों में जो चर्चा चली की स्थितिको सिद्ध करके विद्वत्परिपके निर्णयका थी और जिसके सम्बन्धमें विविध विद्वानोंने लेखादि समर्थन किया है। सोनीजीकी इसमें स्थान स्थानपर