SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 73
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त [ वर्ष । लड़केने अपनी बात कुछ इस ढंगसे कहो कि मेरे रहें तो आपके सब कपड़े धो दू। मजबूरन विमलदे साहित्यिक मित्र तपाकसे बोले-हां यार इनके भाईको कपड़े देने पड़े। शामको धोकर दिये तो इतने खप्तका एक ताजा लतीफ़ा तो सुनो। स्वच्छ कि धोबी भो देखकर शर्माये। ___ "पुकार फिल्ममें किस कदर रश है, यह तो तुम्हें गतवर्प गर्मीके दिनोंमें आपके यहां चोरी होगई । मालूम ही है। विमल भाईने भी भीड़ में घुसकर ४-५ जिन विस्तरोंपर आप आराम फर्मा रहे थे, उनको फर्स्टक्लास टिकट खरीद लिये। एक तो अपनेलिए छोड़कर नकद, जेवर, कपड़े, बर्तन सब ले गये। लगे बाकोके परिचित या मुहल्लेके लोगों के लिए, इस हाथ माडू भी दे गये ताकि सुबह उठकर सर पीटकर खयालसे कि कोई आये तो परेशान न हों। दर्शकोंकी रोनेके अतिरिक्त आपको झाडू देने की जहमत न भीड़ हालमें घुसी जारही है और विमल हैं कि आने उठानी पड़े। समाचार सुना तो घबड़ाया हुआ वाले परिचितोंकी प्रतीक्षामें बाहर सूख रहे हैं। और विमलभाईके यहाँ पहुंचा। समझमें नहीं आता था नमें कि इस मंहगी और कण्ट्रोलके जमाने में अब कैसे पौन तिल रखने को जगह न थी टिकिट जिन साहबने दजन फौजका तन ढकेंगे। और हवा-पानीके अलावा लिये, उनमेंसे किसीने फ्री पास समझकर और किसी क्या खाने-पीने को देगें। सान्त्वना देनेके लिये न ने बुरा न मान जाएं इस भयसे टिकिटके दाम नहीं कोई शब्द सूमते थे, न कोई कमबख्त शेर ही याद दिये । एक साहबने दाम देनेकी जहमत फर्माते हुए आता था। इसी उधेड़बुनमें मुंह लटकाये पहुंचा अठन्नी उनके हाथपर रखो और बोले जब हाउस फल तो विमलभाई देखते ही खिल उठे और मैं कुछ कहूँ हो गया तो टिकिटके पूरे दाम कैसे ?' इससे पहले स्वयं ही बोलेयह लतीफा उन्होंने इस अन्दाज़ में बयान किया "भाई ! हमारा तो सदैवके सङ्कटसे पीछा छुट कि हम लोट-पोट गये। रातको सोने लगा तो मुझे गया। यकीनन आजसे हमारे बुरे दिन गये और विमलभाईको ऐसी कई बातें स्मरण हो आई, जिन्हें मैं अच्छे दिन आये।" अबतक उनकी खूबियां तसब्बुर किया करता था। मैने समझा कि विपताका पहाड़ टूट पड़नेसे अब जो दुनियाँको ऐनक लगाकर देखता हूं तो रङ्ग ही विक्षिप्त हो गया है। परन्तु वह विक्षिप्त नहीं था, दूसरा नजर आने लगा। फिर बोला-'भाई ! यह परिग्रह ही सब झगड़ोंकी सन १९३३ की बात है। मुझे ऐतिहासिक अनु. जड़ है इसीके कारण अनेक क्लेश और बाधाएँ आती सन्धानके लिये अकस्मात् उदयपुर जाना उसी रोज़ हैं। अब सुख-चैन ही सुख चैन है। रोटियाँ तो आवश्यक होगया। मार्ग-व्ययके लिये तो रुपये खानेको मिलेंगी ही। आधे दर्जन बच्चे हो गये अब उधार मिल गये। और ठहरने आदिकी सुविधा पत्नी जेवर पहनने क्या अच्छी लगती थी? विलायती इतिहास-प्रेमी बलवन्तसिहजी मेहताके यहां हो गई। कपड़ा सब जाता रहा अब मक मारकर स्वदेशी परन्तु पहननेके कपड़े मेरे पास कतई नहीं थे। जेलसे पहनेगी!' और फिर वही चेहरेपर फूलसी मुस्कराहट आकर बैठा था। जो कपड़े थे उनमें से कुछ धोबीके उठकर चला तो वहांसे एक साहब साथ और हो यहां थे. कुछ मैले पड़े थे। स्वच्छ एक भी न था। लिये। फर्माया-"देखा आपने इनका खप्त । और उदयपुर जाना उसी रोज अत्यन्त आवश्यक था। लोगोंके घर चोरी होती है तो दहाड़ मारकर रोते हैं बडी असमञ्जस और चिन्तामें था कि यकायक और एक श्राप हैं कि खिल खिल हंस रहे हैं। गोया विमलभाई आये और बोले कि सुना है आप उदयपुर चोरी नहीं हुई, लाटरीमें हरामका रुपया हाथ लग गया जा रहे हैं, वहां आपको कई रोज़ लगेंगे। मेरे पास है। अगर इनका वस चले तो चोरी होनेकी खुशीमें फाल्तू कपड़े तो नहीं हैं. परन्तु आप घरपर दिनभर दावत दे दें।"
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy