________________
२८०
अनेकान्त
T
तीसरे, प्राचीन संस्कृत विद्याके पारगामी पण्डित बनाकर जनता के समक्ष वास्तविक तत्त्वके स्वरूपको रख देना आवश्यकीय । यद्यपि समयके अनुकूल कुछ विद्वान् जैन समाजमें गणनीय हैं पर उनके बाद भी यह परिपाटी चली जावे, इसकी महती आवश्यकता है। एक भी ऐसा विद्यालय नहीं जहां १०० छात्र भी संस्कृतका अध्ययन करते हों । जितने विद्वान हैं वे तो अपने बालकोको अर्थकरी विद्या पढ़ाने में लगा देते हैं। जो बालक सामान्य स्थितिके है उनके यह धारणा होगई है जो संस्कृत विद्या पढ़नेसे कुछ लौकिक वैभव तो मिलता नहीं । पारलौकिककी आशा की जावे. जब कुछ धर्मार्जन हो. मो जहाँ नोन-तेल- लकड़ीकी चिन्ता से मुक्ति नहीं वहाँ धर्मार्जन कैसा । अतः वे बालक भी उदास होगये । रहे धनाढ्यो बालक, सो उन लोगों के यह विचार है जो हमको पण्डित थोड़े ही बनाना है जो दर-दर जावे। हमे तो धनकी कृपा है तब अनायास बीमो पण्डित हमारे यहाँ आते ही रहेंगे । अतः मामूली विद्या पढ़ाकर बालकोको दुकानदारी धन्धेमे लगा देते है । आप ही बतावे. ऐसी अवस्थामै वीरशासनका प्रचार कैसे हो ? रहा त्यागीवर्ग. मो प्रथम तो जैनियोमे त्यागी ही नही, जो है उन के पठन-पाठनकी कोई व्यवस्था नहीं । अथवा. समाजने उनके लिये एक या दो आश्रम जो खोले भी है किन्तु वहाँ यथे पठन-पाठनकी व्यवस्था नही । समाज रुपया भी देना चाहती है तब परिग्रह-पिशाच की ऐसी कृपा होती है जो त्यागी महाराज भी उसीके बढ़ानमे अपनी प्रतिष्ठा समझते हैं। क्या कहूँ मै श्री वीरप्रभुको अन्तिम नमस्कार करके यह प्रार्थना करता
[ वर्ष
हूँ जो हे नाथ ! मैं आपके चरणों का अन्तरङ्गसे अनुरागी हूँ, मेरी सामर्थ्य नहीं थी जो उत्कृष्ट श्रावकका आचार पाल सकूँ; परन्तु आपके शासनके मोहवश इस तुल्लक पदको अङ्गीकार किया है। इसी वर्ष तीव्र गरमी पड़ी, दो मास तृषा परीषहका अनुभव होगया और देगम्बर धर्ममें दृढ श्रद्धा होगई। मेरे मन में यह आता है कि जो यथागम इसे पालन करूँ. और इस संसार यातनासे बचूँ । आपके आगमसे मेरी तो दृढ़तम श्रद्धा होगई है जो आत्मा ही आत्माका गुरु है । जिस समय इन रागादि शत्रुओं पर विजय कर लूँगा उस समय स्वयं ही आप जैसा बन जाऊँगा ।
時刻
हे
हे वीर ! आपने यही तो मार्ग बताया, परन्तु भगवन् ! हम लोगोने उस मार्गको नहीं अपनाया । की मूर्ति पूजी, निर्वाण - भूमि पूजी, किन्तु आपके बताये मार्गपर न चले। आपने तो परिग्रह त्याग बताया. किन्तु हम लोग आपके नामपर लाखो रुपया एकत्रित कर मूलांक पात्र बने हैं। मान लो रुपया भी एकत्रित करे तो उसी वीरप्रभुके शासन प्रचारमै लगा दें । परन्तु उस ओर हमारा लक्ष्य नहीं । हे प्रभो अब बहुत कष्टमय काल है। एक बार फिर प्राचीन कालकी लहर आ जाय हम लोग सुमार्ग पर श्रावे और आपके शासनका प्रचार करें । अन्तमे क्रान्तिके इस युगमें वीरशासन के प्रचारके लिये समाजके विद्वानो और श्रीमानामे मङ्गठित कार्य करनेकी शक्ति जागृत हो इसकी भावना करते हुए हम अपने भाषणको समाप्त करते है ।
वीरशासनकी जय |