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________________ किरण ७ ] भाषण २७६ विरोधियो द्वारा निन्दित न होती। और वे स्वयं इनके की महती आवश्यकता है। उस ओर समाजकी दृष्टि स्थानमे अधिकारी बननेकी चेष्टा न करतं ? आज यह नहीं । पूजन तो देव-शास्त्र-गुरु तीनोकी करते हो परिग्रह-पिशाच न होता तो हम उच्च हैं अप नीच परन्तु शास्त्रोंकी रक्षाका कोई उपाय नहीं। सहस्रों हैं. यह भेद न होता । यह पिशाच तो यहाँ तक अपना शास्त्र जीर्ण-शीर्ण होगये और होरहे है. इसकी ओर प्रभाव प्राणियोपर गालिब किये है जो सम्प्रदायवादो- समाजका लक्ष्य नहीं । मेरी समझमे एक पुरानी ने धर्म तकको निजी मान लिया है। और उस धर्मकी संस्था (वीर-सेवा-मन्दिर) मुख्तार साहबकी है। परन्तु सोमा बाँध दी है। तत्व-दृष्टिमे धर्म तो आत्माकी पर. द्रव्यकी टिके कारण आज कोई महान ग्रन्थका गतिविशेषका नाम है, उसे हमारा धर्म है यह कहना प्रकाशन मुख्तार साहब न कर सके। न्यायदीपिका. क्या न्याय है ? जोधम चतुतिके प्राणियाम विकसित अनित्यपश्चाशत् ममाधिशतक आदि छोटे-छोटे ग्रन्थ होता है उसे इने-गिने मनुष्योम मानना क्या न्याय है। प्रकाशमें ला सके । समाजको उचित है जो इस संस्था परिग्रह-पिशाचकी यह महिमा है जो इस कूपका जल का अजर-अमर करदे । होना तो असम्भव है क्योंकि तीन वर्णक लिय है, इसमें यदि शुद्रांक घड़े पद गय हम लोगांका उसका स्वाद नहीं आया। अगर स्वाद तब अपय हागया दट्टीम हाकर नल आजानेसे जल आया हाता. तब, एक श्रादमी इस पूर्ण कर देता। पेय बना रहता है। अन्तु, इस परिग्रह पापसे ही कलकत्तामे सुनते है इसके उद्धारके लिये चार लाख संमारक सर्व पाप हात है। श्रीवीर प्रभुने तिल-तुप- रुपया हुआ था, परन्तु उसका कुछ भी सदुपयोग नहीं मात्र परिग्रह न रखके पूर्ण अहिंसा-व्रतको रक्षा कर हुअा। उस कमटीक प्रमुख श्री बाबू छाटलालजीका प्राणियाका बता दिया कि यदि कल्याण करनेकी इस आर अवश्य ही ध्यान देना चाहिये और इस पुनीत अभिलापा है तब दंगम्बर-पदका अङ्गीकार करो। यही कार्यको शीघ्र ही प्रारम्भ करना चाहिए। मेरा तो स्वयं उपाय संमार-बन्धनसे छूटनेका है। यदि संसारमे मुख्तार साहबसे यह कहना है जो आपके पाम है सुग्व-शान्तिका साम्राज्य चाहते हो तब मेरे स्मरणसे उसे अपनी अवस्थामे व्यय कर अपने द्वारा सम्पादित सुग्व-शान्ति न होगी. और न स्वयं तुम सुनी हाग, लक्षणावली आदि जा ग्रन्थ है, प्रकाशित कर जाइये । किन्तु जैसे मैंने कार्य किये है वहीं करा । जैसे मैन परलोक बाद क्या आप देखने आवेंगे कि हमारी बाल्यावस्थासे ही ब्रह्मचर्य-व्रत पाला वैसे ही तुम भी सस्थाम क्या होरहा है? इस अवस्थासे मुक्ति तो पालन करो तुम लोगांका उचित है कि यदि मर होना नही, स्वर्गवासी देव होगे. सो वे इस कालमे अन्तरगसे भक्त और अनुरागी हो ता मेरा अनुकरण बात नहीं । समाजम गुणग्राही पुरुषाकी विग्लता है। करो। यदि उस ब्रह्मचर्यव्रतकं पालनमें असमर्थ हा सम्भव है वे इसपर दृष्टिपात करें । महावीर स्वामीका तब बाल्यावस्था व्यतीत हानेपर जमा गृहस्थधमम ता यही आदेश है कि प्रभावना करो। इसका विधान है उस रीतिसे इसे पालन करा । आत्मा प्रभावनीयो रत्नत्रयतेजसा सततमेव । अनन्तर जब युवावस्था व्यतीत हाजावे तब परिग्रहको दानतपाजिनपूजाविद्यातिशयश्च जिनधर्मः॥ त्याग अपरिग्रहीबननेकी चेष्टा करां, इसी कीच दमे मत | স্মখা फसे रहा । द्रव्यको न्यायपूर्वक अर्जन करो. अन्यायसे अज्ञानतिमिरव्याप्तिमपाकृत्य यथायथम् । मत उपार्जन करा. मयादाका त्याग म्वेच्छाचारी मत निजशासनमहात्म्यप्रकाशः स्यात् प्रभावना ।। बना. दान करते समय विवेकको मत ग्वा दो, मन्दिर केवल बैण्ड बाजे बजानेसे प्रभावना नहीं होती। बनाओ, पञ्चकल्याणक उत्सव करा. निषेध नहीं. दुसर, समाजके मामने पुगतत्त्वकी खोज कर परन्तु जहॉपर इनकी आवश्यकता है। मनुप्याके हृदयाम धर्मको प्रभावना जमा देना उत्तम वारशामनके प्रचागर्थ प्राचीन माहित्यके उद्धार कार्य है।
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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