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________________ २७८ अनेकान्त [वर्ष ६ - रहता है। उसके केश निरन्तर लम्बायमान रहें. अतः स्वयमेव विरक्त होकर दैगम्बरी-दीक्षाका अवलम्बन कर उनके अर्थ नाना प्रकारके गुलाब, चमेली, केवड़ा मोक्ष-मार्गका पथिक बन जाता है । श्रीवीरप्रभुने आदि तैलोंका उपयोग करना है। तथा उसके मरल दारपरिग्रह तो किया ही नहीं उसके रागको बाल्याकोमल, मधुर शब्दोका श्रवण कर अपनेको धन्य वस्था ही से त्याग दिया तब अन्य परिग्रह तो कुछ मानता है और उसके द्वारा सम्पन्न नाना प्रकारके ही वस्तु न थी. दीक्षाका अवलम्बन कर माक्षात माक्षग्माम्वादको लेता हुआ फूला नहीं समाता । कोमलाङ्ग मार्ग प्राणियोका दिग्या दिया तथा लोकको अहिमाको स्पर्श करके तो आत्मीय ब्रह्मचर्यका और बाह्यमं तत्वका साक्षात्कार करा दियाशरीर-मीन्दयका कारण वीर्यका पात हात हुए भी अहिसा भूताना जगति विदितं ब्रह्म परमम्, अपनेको धन्य मानता है। इस प्रकार स्त्री-समागममे न सा तत्रारम्भीरत्यगुरपि यत्राश्रमविधी । यमाही पंचेन्द्रियके विषयमे मकड़ीकी तरह जालमे फॅम ततस्तत्सिद्ध्यर्थ परमकरुणो ग्रन्थमुभयम्, जाते है। श्रीवीरप्रभुने उसे दृरसे ही त्यागकर मंमारके भवानेवात्याक्षीन च विकृतवेपोपधिरतः।। प्राणियोको यह दिखला दिया कि यदि इस लोक और मंसारमें परिग्रह ही पञ्च पापांक उत्पन्न होनेमे परलाकम सुग्बी बनना चाहते हा ता इस ब्रह्मचर्य- निमित्त होता है। जहाँ परिग्रह है वहां गग है. और व्रतका पालन करो। भत हरि महाराजने जो कहा है जहाँ राग है, वही आत्माके आकुलता है तथा जहाँ वह तभ्य ही है: आकुलता है वहीं दुःग्य है एव जहाँ दुःग्य है वहाँ ही मत्तभ-कुम्भ-दलने भुवि सन्ति शूराः, सुखगुणका घात है और सुग्वगुणके घातका ही केचित्प्रचण्डमृगराजवधेऽपि दक्षाः । नाम हिंसा है। संसारमे जितने पाप है उनकी जड किन्तु ब्रवीमि बलिनां पुरतः प्रसह्य, परिग्रह है। आज जो भारतमे बहुसंख्यक मनुष्याका कन्दर्प - दर्प-दलने विरला मनुष्याः ।। घात होगया है तथा होरहा है उसका मूल कारण यद्यपि इसी व्रतके पालनसे सम्पूर्ण व्रतोंका समा- परिग्रह ही है। यदि हम इससे ममत्व हटा देवे ना वेश इसीमे हो जाता है तथा सर्व प्रकारके पापोंका वह अगणित जीवोका घात स्वयमेव न होगा। इस त्याग भी इसी बनके पालनसे हो जाता है। फिर भी अपरिग्रहके पालनेसे हम हिमा पापसे मुक्त हो सकते लोकमे सर्व प्रकारके मनुष्य हैं, अनेक प्रकारकी रुचि हैं और अहिंसक बन सकते हैं। परिग्रह के त्यागे बिना है। चिकी विचित्रतासे अन्य अहिंसादि धर्मो (व्रता) अहिंसा-तत्वको पालन करना असम्भव है। भारतवर्ष को भी श्रीवीरने स्वयं पालन कर साक्षात् कल्याणका मेजा यागादिकसे हिसाका प्रचार हागया था, उसका मार्ग दिखा दिया। प्रथम तो यदि आप लोग विचार कारण यही तो है कि हमको इम यागसे स्वर्ग मिल करेंगे तब इमीमे सर्व व्रत आजाते हैं। विचारी, जब जावेगा, पानी बरम जावगा अन्नादिक उत्पन्न होगे। स्त्रीसम्बन्धी राग घट गया तब अन्य परिग्रहसे देवता प्रसन्न होग यह सव क्या था । परिग्रह ही सुतरां अनुराग घट गया। किसी कविने कहा है:- ता था। यदि परिग्रहकी चाह न हाती त। निरपराध गाहणी गृहमाइः' अथान खी ही घर है। घाम- जन्तुआका कान मारता । आज याद इस पारण फूम, मिट्टी-चूना आदिका बना हुआ गृह-गृह नहीं है। मनुष्य आसक्त न होते तब ये समाजवाद कम्यूइसके अनुराग घटनेसे शरीर के शृङ्गारादि अनुराग निस्टवाद क्या होते ? आज यदि परिग्रहके धनी न स्वयं घट जाते है तथा माता-पिता आदिसे स्वयं हात तब य हडताल क्या होता ? यदि परिग्रह-पिशाच न स्नेह छूट जाता है। कुटुम्ब आदि सबमे विरक्त हो होना तब जमीदारी प्रथा, राजसत्ताका विध्वंस करनेजाता है। द्रव्यादिकी ममता स्वयमेव छूट जाता है, का अवसर न आता ? यदि यह परिग्रह-पिशाच न जिसके कारण गृह-बन्धनसे छूटनेमे असमथ भी होता तब कॉग्रेस जैसी स्वराज्य दिलानेवाली संस्था
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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