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________________ श्रीवीर-शासन-जयन्ती-महोत्सवके अध्यक्ष पूज्य श्री १०५ क्षुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णी न्यायाचार्यका भाषा महानुभाव ' शुल्लकजी और ब्रह्मचारीगण, जैन- दुःखाद्विभेपि नितरामभिवांछसि सुखमतोप्यहमात्मन् । धर्ममर्मज्ञ विद्वद्वर पण्डितगण, जैनधर्म-इतिहासवेत्ता दुःखापहारि सुखकरमनुशास्मि तवानुमतमेव ॥ मुख्तारमाहब, उपस्थित समस्त सजनवृन्द एवं हे आत्मन् तू दुखसे भय करता है और सुग्वकी महिला समाज. आकांक्षा करता है. अतः मै तुझे जो अभिमत है __'पाज मैं श्रीवीरशासनजयन्ती-महोत्सवका सभा- अथात जो दुःखको हरण करने वाली और सुग्यको पति चुना ग है यह सर्वथा अनुचित है क्योकि वीर- करने वाली शिक्षा है उसीको कहूँगा। कहनेका तात्पर्य शामन-जयन्ती उत्मवका भार वही वहन कर सकता है यह है कि शिक्षा वही है जो सुग्वका देवे और दुःखका जो ज्ञानवान होकर वीतराग हो। जो वीतराग नहीं वह विनाश कर । भाषामें कविवर श्रीदौलतरामाने भी माक्षात् मोक्ष-मार्गका साधन नहीं दिखा सकता। जो लिखा हैआंशिक वीतराग हा और पदार्थक प्रदर्शन करनेमे जे त्रिभुवनमें जीव अनन्त सुख चाहे दुःख ते भयवन्त । अक्षम हो वह भी उनके शासनको दिखानेमें समर्थ ता दुःखहारि सुखकार कहे सीख गुरु करुणा धार ।। नही हो सकता। अतः इस पदके योग्य यहां कौन है, अर्थात इस दुःखमय संसारमें जिस उपदेशके मंग बुद्धिम नहीं आता । परन्तु एक बल हमे है और द्वारा यह आत्मा दुःबसे छूट जावे और निराकुलतारूप संभव है उससे इस भारका कुछ दिग्दर्शन करनेमे, मै सुखको प्राप्त कर लेवे वही उपदेश जावका हितकर है। हो सएसी संभावना है। प्रत्यक्ष दग्यताई जा श्रीवीरप्रभुने पहले ता आत्मीय प्रवृति द्वारा बिना ही वीरके नाममंस्कारसे मंगमरमरको मूर्तिकी अर्चा शब्दाच्चारणके वह शिक्षा दी जिसे यदि यह जीव होरही है तथा वीरके नामसे राजग्रहका विपुलाचल पालन कर ता अनायास अलौकिक सुग्वका पात्र हो पर्वत लाखो मनुष्यों द्वारा पूजा जारहा है। वीरप्रभूने सकता है। श्रीवीरप्रभुने बाल्यावस्थासे ही ब्रह्मचर्यवहांपर तपस्या ही तो की थी ? वीरप्रभुका जिस स्थान व्रतको म्वीकार किया था और दार-परिग्रहमे सर्वथा पर निर्माण हुआ वह क्षेत्र आजतक पूजित हो रहा मुक्त रहे थे। है। वीर-चरित्र जिस पुस्तकमे लिखा जाता है वह संसार-वृद्धिका मूल-कारण स्त्रीका समागम है। पुस्तक भी उदक-चंदनादि अघसे अर्चित होती है। स्त्री-समागम होते ही पाँचो इन्द्रियांके विषय स्वयमेव मैंने भी उस वार-प्रभुको अपने हृदयारविन्दमे स्थापित पुष्ट हाने लगते है। प्रथम तो उसके रूपको देखकर कर रखा है। अतः मुझसे यदि अाजका कार्य निर्वाह निरन्तर देखनेकी अभिलाषा रहती है, वह सुन्दर होजावे तब इसमे आश्चर्य की कौनसी बात है । आज- रूपवाली निरन्तर बनी रहे इसके लिय अनेक प्रकार के दिन मुझे श्रीमहावार भगवान शासनको दिखाना के उपटन, तेल आदि पदार्थोंके संग्रहमें व्यस्त रहता है जिसके द्वारा हितको बात दिखाई जावे और अहित है। उसका शरीर पसेव आदिसे दुर्गन्धित न होजाय, का निवारण किया जावे उसीका नाम शासन है। श्री अतः निरन्तर चन्दन, तैल, इत्र आदि बहुमूल्य गुणभद्रम्बामाने आत्मानुशासनमें लिखा है:- वस्तुओका संग्रह कर उस पुतलीकी सम्हालम संलम
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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