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सम्पादकीय
घबराने लगता है,
अपने
आपतु लोक-रक्षा
प्रेरित होकर
ये मनुष्य हैं या सांप ?
रेखा खीच ली है। और इन रेखाओके अन्दर रहने यानते हैं डायन भी अपने-परायेका भेद जानती है।
१. वाले एक दमरेका संहार करना तो दूर अनिष्ट करना
भी नही सोचत । परन्तु भारतके हिन्दु और वह भी वह कितनी ही भूखी क्यों न हो, फिर भी अपने
निरामिप भोजी, उच्चवर्णोत्पन्न उक्त मर्यादाम नहीं बच्चोंका भक्षण नहीं करती। सिंह-चीत. घडियाल
बन्धे हैं। मुक्तिके इच्छुक इस बन्धनमे मुक्त है। न मगरमच्छ. बाज-गरुड आदि कर हिंसक जानवर भी
इनसे अपने देशवासी बच पाते है. न सहधर्मी मजातीयोंको नहीं खाते। कहते हैं मॉपन एकमो एक
और न सजातीय। अण्ड प्रसव करती है और प्रसव करते ही उनमेसे अधिकांश खा लेती है .या नष्ट कर देती है। हमारा
चूँकि यह निगमिप भांजी है; रक्तमात्र देवनेसे
इनका हृदय घबराने लगता है । इसलिये इन्होंने अपना विश्वास है कि वह क्षुधा-शान्त करनेको मन्तान-भक्षण नहीं करती; अपितु लोक-रक्षाकी
अपने कुटुम्बियो, इष्ट-मित्रो. सजातीय और सहधर्मी भावनासे प्रेरित होकर ही विपैली सन्तानकं भक्षणको
बन्धु-बान्धवाके संहारका उपाय भी अहिंसक
निकाल रक्खा हैबाध्य होती है।
कर-से-कर पशु-पक्षी भी अपनी सीमाके अन्दर 'होजाएँ खून लाखों लेकिन लहू न निकले। ही केवल सुधा-पूर्ति के लिये विजातियोका शिकार क्या किमी देशमे, समाजमे अपनी बहन-बेटियोकरत है। किन्तु, हज़रत इन्सानसे कुछ भी बईद को. बन्धु-बान्धवोको शत्रुओके हाथों सौपत हुए नहीं । ये जल-थल-नभ मर्वत्र विश्व-सहारका पहुँते किमीने देखा है ? न देवा, सुना हो तो भारतमें हैं । आवश्यक-अनावश्यक संसारको कष्ट देते है। आकर यह पैशाचिक लीला अपने ऑग्याके सामने शत्रुका तो संहार करत ही है, मित्रों और परोपकारियो हाती देख लो। ये लोग गायका रस्सा तो कमाईसे को भी नहीं छोड़त । जो काम शैतान करते हुए लजाय, छानत है पर, बहन-बाँटयोका हाथ स्वयं उनके हाथों उसे य मुस्कराते हुए कर डालत है।
मे पकड़ा देते है। कुत्तो-बिल्लियोको तो अपने साथ ___ संमारमे शायद मछली और मनुष्य ही केवल दो सुलाते और खिलाते है, पर अपने सजातियो-सह ऐसे विचित्र प्राणी हैं जो सजातीयोंको भी नहीं धर्मियोंसे घृणा करते है। सांपोको दूध पिलाने और छोड़ते । सम्भवतया जैनशास्त्रांमें इसीलिय इन दानोंके चिंउटियांका शक्कर बिलानेके लिये तो ये लोग सातव नरक तकक बन्ध होनेका उल्लेग्य मिलता है जबकि जङ्गल-जङ्गल घूमते है, पर अपहत महिलाओके अन्य कर-से-कर पशु-पक्षियोंके प्रायः छठे नरक तक उद्धारके बजाय उनकी छायासे भी दूर भागते है। का ही बन्ध होता है। ईमानकी बात तो यह है कि चिठीमारके हाथामे तात-चिड़ियाओंका तो रुपया देकर मनुष्यकी करतूतोकी तुलना किसी भी जानवरसे उद्धार करत है. पर आतताइयोंके चंगुल में फॅमीराती. नहीं की जा सकती। यह अपनी यकतॉ मिमाल है। बिलग्बती नारियोको मुक्त करना पाप समझते है।
मनुष्य अपने मजातीय यानी मनुष्यका संहार यूँ तो आय दिन इस तरहके काण्ड होत ही रहते करनेका आदी है। फिर भी भारतके हिन्दुओंके अति- है, परन्तु सीनेपर हाथ रखकर एक घटना और रिक्त प्रायः सभी मनुष्योने देश, धर्म. ममाजकी पढ़ लीजिये: