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________________ सम्यग्दृष्टिका आत्म-सम्बोधन ( लेखक - श्रीजिनेश्वर प्रसाद जैन ) हे वीर आत्मन् । कुछ तू कितना धीर कितना शक्तिशाली और अखंड ज्ञानचंद्र, प चिन्मूर्तिस्वरूप श्रनन्त-लक्ष्मीका धनी है और कहां तेरी इस हाड-मांसके अस्थिर गलनरूप शरीर में मोह-ममकार-बुद्धि | तरी इस दशापर खेद होता है कि तू मोहमे कितना अन्ध होरहा है। सब जानते हुए भी कुछ नहीं जानता. सब कुछ देखते हुए भी कुछ नहीं देखता । अरे ! अब तो चेत और इस मोहकी शृंखलाको तोड । इस मोहके फन्देमे पड़े-पड़े ही तूने कितना कल्पकाल बिता दिया । कितनी शताब्दियाँ तूने संसारमें जन्मते और मरते बिता दी । कितनी माताका दुग्धपान आज तक तूने किया और कितनी माताको तूने आज तक अपने वियोगमे लाया और कितनी पर्यायांम तूने जीवन बिताया तथा आज तक कितने संकल्पो और विकल्पो में फंसकर स्वको भूलकर - निजकी सुध-बुधको खोकर गरिक भेड़ की तरह हँकता रहा । अरे महान् पुरुषार्थी ! अब पुरुषार्थ कर । पुरुष बन । जागरूप होकर जाग । चेतनस्वरूप होकर चेत और समभपूर्वक समझ । अपने निजकुटुम्बमें मिलनेका प्रयास कर । तुझे श्रवश्य सफलता प्राप्त होगी। वह सफलता बाहर नहीं तरेमे ही है । मृगकस्तूरीकी तरह बाहर मत खोज । अन्दर निरख । शान्त हो । भववासना और पापवासनाओका अन्त कर । शान्तचित्त और निराकुल दशा तेरा स्वरूप है उसे पहचान । अपनी मस्ती में मस्त हो जा। खुद में समा जा। 'दासोऽहं' का विकल्प काटकर • सोsहं' से भी आगे बढ़ कर हमे गोता लगा । तब ही तू निजमें निजरूप होकर ठहरेगा । संसारमें भटकते हुए किमी जीवको जब कभी कदाचित् - किसी मन समागम या गुरुकी मुखारविन्दवाणी आत्म-ज्योतिकी झलक आ जाती है तब वह जीव आध्यात्मिक कहे, विवेकबुद्धिवाला कहो अथवा स्वरूपमे तल्लीन कहो या सम्यग्दृष्टि कहो आदि अनेक नामांसे पुकारा जाता है। जब यह जीव सम्यक दर्शनसे विभूषित होता है. तब इसकी दशा ही कुछ अपूर्व होजाती है। इसकी समस्त क्रियायें इसकी समस्त भावनायें ही कुछ अजीब (अद्भुत) होजाती हैं। यह बहिरंग में सब कुछ करते हुए भी अन्तरगम किसीका स्वामित्व नहीं रखता । वह भोजन करता है परन्तु किसीको भी कष्ट न देकर। वह स्त्री- पुत्रादिके मध्यमे रहता हैं, उनसे स्नेह करता है, उनका सर्व प्रबन्ध एवं सर्व कार्य करता है. फिर भी उसकी मोहबुद्धि नहीं होती. वह अन्तरङ्गमें ज्ञाता-दृष्टा रहता है। शरीरको शरीर पर पदार्थोको पर और अपने चिन्मात्र चेतनको उससे भिन्न तथा निज अनुभव करता है वह संसारके समस्त कार्योंको करता है परन्तु निजउपयोगका ध्यान नहीं छोड़ता । उसका जीवन, उसका व्यवहार. उसकी कार्यकुशलता, उसका सांसारिक प्रोमकुछ विलक्षण ही है । वह खाते हुए भी नहीं खाता, शयन करते हुए भी शयन नही करता और विषय भोगते हुए भी विषय नहीं भोगता । वह तो प्रतिसमय श्रात्मतत्परसावधान रहता है। ऐसे ही जीवका आत्मीय कल्याण होता है, क्योंकि जो भी कार्य वह करता है उसका वह स्वामी नही बनता, क्योंकि जब भेद-विज्ञानका रसिक होगया, परसे निजको भिन्न जान लिया, फिर वह अन्य पदार्थों का कर्ता या स्वामी कैसे होमकता है ? जैसे पत्ता जब तक हरा रहता तभी तक वह रस खीचता है - मूत्र जानेपर रस नहीं खींचता । इस तरह वह जब तक अन्य कार्योंमें रचता है तभी तक बँधता है । स्वमें रचनेपर नहीं बँधता है। उसका उपयोग अत्यन्त निर्मल है। हर समय जेलबन्दकी तरह विचारता रहता है कि कब मेरा यहाँ
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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