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अनेकान्त
[वर्ष ९
अंशोंमें अनुचित नहीं । पश्चिम भारतके प्रायः तमाम कहा कि आपका कार्य त्रुटिपूर्ण है क्योंकि इनमें जैन मन्दिरोंके शिखर एक ही पद्धतिके हैं । अन्य प्रान्तोंमें मन्दिरोंकी पूर्णतः उपेक्षा कीगई है जो कलाकौशलमें यहाँके प्रान्तीय तत्वोंका प्रभाव है। गर्भगृह, नव. किसी दृष्टिसे प्रकाशित चित्रोंसे कम नहीं पर बढ़कर चौकी, सभामण्डप आदिमें अन्तर नहीं, परन्तु हैं। वह कहने लगी मैं करूँ क्या मुझे जो सामग्री मन्दिर में गर्भगृहके अग्रभागमें सुन्दर तोरण, स्तम्भ मिली है उसके पीछे कितना श्रम करना पड़ा है एवं तदुपरि विविधवाद्यादि सङ्गीतोपकरण धारक आप जानते हैं। पुतलियाँ, उनका शारीरिक गठन, अभिनय, आभूषण मैं तो बहत ही लजित हुआ कि आजके युगमें तथा शिखरके ऊपरके भागमें जो अलङ्करण है उनमें भी हमारा समाज संशोधकको न जाने क्यों घृणित प्रान्तीय कलाका प्रभाव पाया जाना सर्वथा स्वाभविक दृष्टि से देखता है। मेरे लिखनेका तात्पर्य इतना ही है है। जैनमन्दिरोंके निर्माणका सब अधिकार सोम- AMA
र साम• कि हमारी सुस्ती हमे ही बुरी तरह खाये जारही है, पुराघोंको था, वे आज भी प्राचीन पद्धतिके प्रतीक इस तो दःख होता है। न जाने आगामी सांस्कृतिक है, जिनमें भाई शङ्कर भाई और प्रभाशङ्कर भाई, निर्माणमे जैनोंका जैसा योगदान रहेगा. वे तो अपने नर्मदाशङ्कर आदि प्रमुख हैं। पं० भगवानदास जैन ही इतिहास के साधनोंपर उपेक्षित मनोवृत्ति रक्खे हुए भी शिल्पविद्याके दक्ष पुरुषोंमे हैं। श्राबू, जैसलमेर, है। जैन मन्दिगॅमेसे जो भरतीय शिल्प और वास्तुराणकपुर, पालिताना, खजुराहा. देवगढ़ और श्रवण- कलाको सिमानामविकास बेलगोला. जैनकाची, पाटन आदि अनेक नगरीक तैयार होना चाहिए जिसमे मन्दिर और उनकी कला मन्दिर स्थापत्यकलाके मुखको उज्ज्वल करते है । के क्रमिक विकासपर आलोक डालने वाला विस्तृत आबूके तोरण-स्तम्भ और मधुच्छत्र भारतमे विख्यात पानविकीदा। है। मध्यकालीन जैन शिल्पकलाके विकासके जो उदाहरण मिले हैं उनमें अधिकांश जैनमन्दिर ही है। २ गुफाएं--- इनके क्रमिक इतिहासपर प्रकाश डालने वाला एक
जिस प्रकार मन्दिरोंकी संख्या पाई जाती है उतनी भी अन्य प्रकाशित नहीं हुआ, जिससे अजैनकला
गुफाओंकी सख्या नहीं है गुफाओंको यदि कुछ प्रेमी भी जैनकलासे लाभान्वित होसकें । यह इतिहास प्रशोंमे मन्दिरोंका अविकमितरूप माने तो अनुचित तैयार होगा तब बहुतसे ऐसे तत्व प्रकाशमें भावेंगे ,
ग नहीं, यह रामटेक, चांदवड, एलोरा, ढङ्क आदि जो आज तक वास्तुकलाके इतिहासमे आये ही नहीं। पर्वतोत्कीर्ण गुफाघोंसे प्रमाणित होता है। इनका न जाने उस स्वर्ण दिनका कब उदय होगा?
इतिहास तो पूर्णान्धकाराच्छन्न है, जो कुछ गजेटियर्स कलकत्ता-विश्वविद्यालयकी ओरसे हाल हीमें और आंग्ल पुरातत्त्ववेत्ताओंने लिखा है उसीपर "हिन्दु टेम्पिल" नामक अत्यन्त महत्वपूर्ण ग्रन्थ दो माधार रखना पड़ता है। इनमे एक भूल यह होगई भागोंमें प्रकाशित हुआ है जिसे एक हंगेरियन स्त्री है कि बहुसंख्यक जैन गुफाएँ बौद्धस्थापत्यावशेषोंके डॉ. स्टेलाक्रमशीशने वर्षों के परिश्रमसे तैयार किया रूपमें आज भी मानी जाती है। उदाहरणके लिये है। इसमें भारतवर्षके विभिन्न प्रान्तोंमे पाये जाने राजगृहस्थित रोहिणेयकी ही गुफा लीजिये, जो बाले प्रधानतः हिन्दूमान्य मन्दिर, उनका वास्तुशास पांचवें पहाइपर अवस्थित है। जनता इसे "सप्तपर्णी की दृष्टि से विवेचन, मन्दिरों में पाई जाने वाली अनेक गुफा" के रूपमें पहचानती है आश्चर्य तो इस बात शिल्पकृतियोंके जो चित्र प्रकाशित किये है वे ही उन का है कि पुरातत्त्व विभागकी ओरसे बोड भी वसा की महत्ताके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। मैंने अपनी परिचिता ही लगा है। और भी ऐसे अनेक जैन सांस्कृतिक डॉ० स्टेलाकेमशीशसे यों ही बातचीतके सिलसिलेमे प्रतीक मैंने देखे हैं जो इतर सम्प्रदायोंके नाम