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किरण ६]
जैनपुरातन अवशेष
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प्रसङ्गानुसार कुछ उल्लेख पाते हैं जिनका सम्बन्ध जैन तक्षण कलावशेषोंको अध्ययनकी सविधाके शिल्पके एक अङ्ग-प्रतिमाओंसे है। यक्ष-यक्षिणी भादि लिये, निम्न भागोंमें बाँट दें तो अनुचित न होगाःकी मूर्तियोंके निर्माणपर उनके प्रायुधोंपर कुछ प्रकाश १ मन्दिर, २ गुफाएँ, ३ प्रतिमाएँ-(प्रस्तर
वाले “निर्वाणकलिका" जैसे प्रन्थ हैं पर वे धातु और काष्ठकी), ४ मानस्तम्भ, ५ अभिलेखअपूर्ण ही कहे जा सकते हैं, जो कुछ हैं वे उस समय (शिलालेख व प्रतिमालेख), ६ फुटकर । के हैं जबकि जैनसमाज शिल्पकलाकी साधनासे विमुख होचुका था या उसमें रुचिका अभाव था। १
१ मन्दिरठक्कुर' फेरूने "वास्तुसार प्रकरण" अवश्य ही किसी भी आस्तिक सम्प्रदायके लिये उसका निर्माण किया है। प्रतिष्ठादिक साहित्यमें उल्लेख पाये अपना भाराधना-स्थान होना बहुत आवश्यक है, हैं पर सार्वभौमिक उपयोगिता नहीं के बराबर है। जहाँपर आध्यात्मिक साधना की जामके। अत: जैनोंको अपने अवशेषोंका अध्ययनकर प्रकाश जैनसमाजने पूर्वकालमें पर्याप्त मन्दिरोंका निर्माण मे लानेमें जरा कष्टका सामना करना पड़ेगा, साहित्य बड़े उत्साह पूर्वक किया, जिनमेंसे कुछ तो भारतीय के अभावमे अवशेषोंसे ही शिल्पकलाका प्रकाश लेकर तक्षणकलाके उत्कृष्टतम नमूने हैं। इन मन्दिरोंकी इसी प्रकाशसे अन्याय अवशेषोंकी गवेषणा करनी रचना-पद्धति अन्य सम्प्रदायोंकी भाराधना-स्थानोंकी होगी, काम कठिन अवश्य है पर उपेक्षणीय भी तो अपेक्षासे बहुत ही उन्नत और आंशिकरूपमें स्वतन्त्र नहीं है। श्रमजीवी और बुद्धिजीवी मानव-विद्वान ही भी है। भिन्न-भिन्न प्रान्तोंमें मन्दिर पाये जाते हैं वे इन समस्याओं को सुलझा सकते हैं।
अपनी पृथक्-पृथक् विशेषता रखते हैं। इनके १ ठाकुर जैनसमाजके सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थकार इतिहास प्रेमी
निर्माणका हेतु भी अत्यन्त व्यापक था, वास्तुशास्त्र में सजनोंके प्रथमश्रेणी में आते हैं इनके जीवन और कार्यके
आया है धर्म, अर्थ, काम और मोक्षकी साधनाके लिये देखें "विशाल भारत," मई जून सन् १६४७।
लिये मन्दिरोंकी सृष्टि होती है। यह सिद्धान्त इतर २ परिस्थितियोंपर विचार करनेके बाद यह प्रश्न तीव्रता
मन्दिरोंपर सोलहों आना चरितार्थ होता है, परन्तु से उठता है कि जैन शिल्पकलाका निशानी हों, प्राचीन जैन मन्दिरकि अवलोकनसे विटित होता जब प्रतीक मोजूद हैं तो इतिवृत्त अवश्य चाहिये। जैन
है कि जैनोंने इनको लोकभोग्य-आकर्षक-बनानेका विद्वानोंको गम्भीरतासे सोचकर एक ऐसी समिति नियुक्त
__ भरसक प्रयास किया था, मन्दिरोंके बाहरके भागमे कर देनी चाहिये, जो इसका अनुशीलन प्रारम्भ कर दे।
जो पक्तिबद्ध अलंकरण एव शिखरके निम्न भागमे इलाहाबाद विश्वविद्यालयके अध्यापक डा. प्रसन्नकुमार
जो भिन्न-भिन्न शिल्पके स्थान हैं उनमे तात्कालिक प्राचार्य और पटना वाले डा. विद्यापद भट्टाचार्य
लोक जीवनकं तत्त्व कहीं-कहीं खोदे गये है। शिखर भारतीय शिल्प स्थापत्यकला और एतद्विषयक साहित्यके
निर्माणकलाको तो जैनोंकी मौलिक देन कहें तो कुछ गम्भीर विद्वान् है । इनसे भी लाभ उठाना चाहिये। है कि जिन जिन प्रकारके शिल्पोल्लेख साहित्य में श्राए
आज भी गुजरात-काठियावाड़में सोमपुरा नामक हैं वे पायाणपर कहा कैसे और कब उतरे है, इनका एक जाति है जिसका प्रधान कार्य ही शास्त्रोक्त शिल्प- प्रभाव विशेषतः किन किन प्रान्तोंके जैन अवशेषोपर विद्याके संरक्षण एव विकासपर ध्यान देना है। ये पड़ा है, बादम विकास कैसे हुआ, अजेनसे जैनोंने और प्राचीन जैन शिल्प स्थापत्य के भी विद्वान् और क्रियात्मक जैनसे अजेंन कलाकारोंने क्या लिया दिया आदि बातोंअनुभवी है। इन लोगोंकी मददसे एक आदर्श जैन का उल्लेख सप्रमाण, सचित्र होना चाहिये। काम निःसंदेह शिल्पकला-सम्बन्धी अन्य अविलम्ब तैयार हो ही जाना अमसाध्य है पर असम्भव नहीं है, जैसा कि अकर्मण्य चाहिये । इममें इन बातोंका ध्यान रखा जाना अनिवार्य मान बैठते हैं।