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________________ २३० अनेकान्त प्रत्येक व्यक्तिको इस बातका सदैव स्मरण रखना चाहिये कि जिस विषयपर उसकी रुचि हो या जिसे वह अध्ययन करना चाहे उसे सबसे पहले तदनुकूल मानसिक पृष्ठभूमि तैयार करनी होगी जो विषयके आन्तरिक तत्त्वोंको हृदयक्रम करनेमें सहायक प्रमाणित हो सकें । पुरातत्वके अध्ययनको चलती भाषामे पत्थरोंसे सर फोड़ना या "गड़े मुर्दे उखाड़ना" कह सकते हैं। पर हृदय कोमल और भावुक चाहिये। यह जाल - चाहे आप रुचि कह लें - ही ऐसा विलक्षण है कि इसमें जो फँसता है वह इस जीवनमें तो नहीं निकल सकता, वह साधना ही बड़ी कठोर और भीषण श्रम साध्य है । पाषाण जगतके खण्डों में सदैव रत व्यक्तियकों का मानसिक अध्ययन करेगे तो मालूम होगा मानो बिश्वके बहुत से aaका यहीं समीकरण हुआ है। [ वर्ष ९ जैन अवशेषोंको समझने के लिये सारे भारतवर्ष में पाये जाने वाले सभी श्रेणी के अवशेषोंका अध्ययन भी अनिवार्य है क्योंकि जैन और अजैन शिल्पात्मक कृतियोंका सृजन जो कलाकार करते थे वे प्रत्येक शताब्दी में आवश्यक परिवर्तन करते हुए एक धारामें बहते थे, जैसा कि वास्तुकलाके अध्ययनसे विदित हुआ है । प्रान्तीय कलात्मक अवशेषोंको ही लीजिये उनमें साम्प्रदायिक तत्त्वोंका बहुत ही कम प्रभाव पायेंगे, परन्तु शिल्पियोंकी परम्परा जो चलती थी वह अपनी कलामें दक्ष और विशेषरूपसे योग्य थी । मध्यकाल के प्रारम्भिक जो अवशेष हैं उनको बारहवीं शतीकी कृतियोंसे तोलें तो बिहार, मध्यप्रान्त और बङ्गालकी कलामे कम अन्तर पाएँगे। मैंने कलचूरी और पालकालीन जैन तथा श्रजैन प्रतिमाओंका इसी संक्षिप्तावलोकन किया है उसपरसे मैंने मोचा है १०-१२ तक जो धारा चली वही तीर्थ प्रान्तोंको लेकर चली थी अन्तर था तो केवल बाह्य आभूषणोंका ही - जो सर्वथा स्वाभाविक है । कथनका तात्पर्य यह है कि एक परम्परामें भी प्रान्तीयकला भेदसे । प्राचीन लिपि और उनके कुछ पार्थक्य दीखता क्रमिक विकासका ज्ञान भी विशेषरूपसे अपेक्षित है। मूर्तिविधान के अनेक अङ्गका अध्ययन ठोस होना अत्यन्त आवश्यक है। इतिहास और विभिन्न राजवशकं कालोंमे प्रचलित कलात्मक शैली आदि अनेक विषयोंका गम्भीर अध्ययन पुरातत्त्वके विद्यार्थियों को रखना पड़ता है। क्योंकि ज्ञानका क्षेत्र विस्तृत है । यह तो सांकेतिक ज्ञान ठहरा । उपर्युक्त पंक्तियों को छोड़कर अन्य व्यक्तियोंकी जानकारी भी अपेक्षित है । पुरातन शिल्प और कलाके आभ्यन्तरिक मर्मको जाननेके लिये वर्तमानमें निम्न बातोंपर ध्यान देना अनिवार्य है। मैं ऊपर ही कह आया हूँ मेरा क्षेत्र अत्यन्त संकुचित है। भारतीय जैन शिल्पका अध्ययन तब तक अपूर्ण रहेगा जबतक वास्तुकला के अङ्ग-प्रत्यङ्गोंपर विकासात्मक प्रकाश डालने वाले साहित्यकी विविध शाखाओंका यथावत अध्ययन न किया जाय; क्योंकि तक्षरणकला और उसकी विशेषता में परस्पर साम्य होते हुए भी प्रान्तीय भेद या तात्कालिक लोकसंस्कृतिके कारण जो वैभिन्न पाया जाता है एवं उस समयके लोक जीवनको शिल्प कहाँ तक समुचिततया व्यक्त कर सका है। उस समयपर जो वास्तुकला विषयक प्रन्थ पाये जाते हैं न जिन जिन शिल्पकलात्मक कृतियोंके निर्माणका शास्त्रीय विधान निर्दिष्ट है उनका प्रवाह कलाकारोंकी पैनी छैनी द्वारा प्रस्तरोंपर परिष्कृतरूपमें कहाँ तक उतरा है ? यहाँ तक कि शिल्पकला जब तात्कालिक संस्कृतिका प्रतिबिम्ब है तब उन दिनोंका प्रतिनिधित्व क्या सचमुच ये शिल्प कृतियाँ कर सकती हैं ? आदि अनेक महत्वपूर्ण तथ्यों का परिचय तलस्पर्शी अध्ययन और मननके बाद ही सम्भव है । शिल्पकी आत्मा वास्तुशास्त्रमें निवास करती है । परन्तु जैन शिल्पका यदि अध्ययन करना हो तो हमें बहुत कुछ अंशोंमे इतर साहित्यपर निर्भर रहना पड़ेगा, कारण कि जैनोंने जो शिल्पकलाको प्रस्तरों पर प्रवाहित करने-करानेमें जो योगदान दिया है उसका शतांश भी साहित्यिकरूप देने में दिया होता तो आज हमारा मार्ग स्पष्ट और स्थिर हो जाता,
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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