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किरण ६ ]
स्मारक" नामक संग्रहात्मक प्रन्थोंकी रचना की है। वह बिल्कुल अपूर्ण है । उसमें अनुकरणमात्र है, थोड़ासा भी यदि स्वकीय खोजसे काम लिया जाता तो काम अच्छा और पुष्ट होता । उन दिनों न तो जैनसमाजकी सार्वभौमिक रुचि थी और न एतद्विषयक प्रवृत्ति में सहायता प्रदान करने वाले साधन ही सुलभ थे। आज सभी दृष्टिसे वायुमण्डल सर्वथा अनुकूल है । जो सामग्री नष्ट होचुकी है उनपर तो पश्चात्ताप व्यर्थ ही है, जो अवशिष्ट है उनका भी यदि समुचित उपयोग कर सके तो सौभाग्य ! "जगे तबसे ही प्रातःकाल सही" ।
जैनपुरातन अवशेष
पूर्व पंक्तियों में सूचित किया जाचुका है कि जैन अवशेषों का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है । जहाँपर जङ्गलों मे जो प्रतिमाएँ है उनका कला या धार्मिक दृष्टिसे कौन मूल्याङ्कन करे ? वहाँ तो सुरक्षित रहना ही असम्भव हैं। मैंने कई जगह पर ( C. P. में) मूर्तियों - का पाषाण अच्छा होनेसे लोगोंको कुल्हाड़ी और छुरे घिसते हुए देखा, कई स्थानोंपर तो उनके सामने अमानुषिक कार्य भी होते है । परम वीतराग परमात्मा अहिसाके अवतार-सम प्रतिमाके सामने ग्रामीण लोग बलिदान तक करते देखे गये । जबलपुर वाला बहुरीचन्द इसका उदाहरण है । यदि स्वरूपसे गवेषणा करें तो ऐसे अनेकों उदाहरण मिल सकते हैं।
शब्दकोशों और पुरातत्त्वकी सीमाका गम्भीर अध्ययन करनेके बाद अवभासित होता है कि पुरा तव एक ऐसा शब्द है जो अत्यन्त व्यापक अर्थको लिये हुए है, इतिहास श्रादिके निर्माण में जिन्हीं किन्हीं वस्तुओंकी -साधनों की आवश्यकता रहती है वे सभी इसके भीतर सन्निविष्ट है, उन सभी साधनोंपर
तो प्रकाश डालने का यह स्थान है न कुछ पंक्तियोंमे उन सबका समुचित परिश्चय ही कराया जा सकता है। वर्षोंकी साधना के बाद ही वैसा करना सम्भव है। मैंने इस निबन्धमे अपना कार्य- प्रदेश बहुत ही सङ्कुचित रखा है । मुझसे यदि कोई पुरातत्वपर अध्ययन करने-करानेके सम्बन्धमें प्रश्न करे तो मैं तो
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यही सम्मति दूँगा कि जैनसमाजको सर्वप्रथम पुरातत्व के उस भागको लेना चाहिये जो तक्षणकलासे सम्बन्ध रखता हो, वही उपेक्षित विषय रहा है। क्योंकि इनकी संख्या भी सर्वाधिक है। मुझे स्पष्ट कर देना चाहिये कि अरक्षित अवशेषोंकी ओर ही केवल मेरा संकेत नहीं है मैं तो चाहता हूँ जो प्राचीन मन्दिरप्रतिमाएँ आज आमतौर से पूजा-अर्चनाके काम में आते हैं और कलापूर्ण हैं उनके उद्धार के लिये भी सावधान रहना अनिवार्य है । उद्धारका अर्थ कोई यह न लगा बैठें कि उनको नये सिरे से बनवावें, परन्तु उन कलापूर्ण सम्पतियोंके सुन्दर फोटू ले लिये जायें, जिस समयकी कला हो उस समयकी ऐतिहासिक सामग्रीका उपयोग कर उनका अध्ययन कर फल प्रकाशित करवाया जाय, नष्ट होने से बचाया जाय, अर्थात पुरातनताको प्रत्येक उपायसे बचाया जाय । जहाँपर मालूम हो कि यहाँपर खुदाई कराने जैनमन्दिर या अवशेष निकलेगे वहाँपर भी भारत सरकार के पुरातत्व विभागसे खुदाई करवानी चाहिये, आर्थिक सहायता करनी चाहिये ।
क्योंकि सरकार तो समस्त भारत के लिये सीमित अर्थ व्यय करती है। अतः इतने विशाल कार्यका उत्तरदायित्व केवल गवर्नमेण्टपर छोड़कर समाजको निश्चेष्ट न होना चाहिये। सरकार आपकी है । अपने कर्तव्य से समाजको च्युत न होना चाहिये । सारे समाजमें जबतक पुरातत्वान्वेषणकी क्षुधा जागृत नहीं होती तबतक अच्छे भविष्यकी कल्पना कमसे कम मैं तो नहीं कर सकता । अतीतको जाननेकी प्रबल आकांक्षा ही को मैं अनागतकालका उन्नतरूप मानता हूँ । कलकत्ताके बिहार मे मैंने केवल एक बाबू छोटेलालजी जैनको ही देखा जो जैन पुरातत्व विशेषतः राजगृही आदि जैन प्राचीन स्थानोंकी खुदाई और अन्वेषण के लिये तड़फते रहते हैं । वे स्वयं भा न केवल पुरातत्त्व के प्रेमी हैं अपितु विद्वान् भी हैं। वे वर्षोंसे स्वप्न देखते आये हैं कब जैन पुरातवका संक्षिप्त इतिहास तैयार हो, दौड़ते भी वे खूब हैं पर अकेला आदमी कर ही क्या सकता है ?