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भनेकान्त
[वर्ष ९
मध्यप्रान्त और बरार छह वर्ष तक मेरे विहार पद्धतिसे देखते हैं। वे नहीं चाहते हैं कि हमारी का क्षेत्र रहा है, यहाँके पुरातत्त्वपर मैंने विशाल भारत सभ्यतासे सम्बन्धित कोई भी साधन हमारी दृष्टिसे १९४७ जुलाई, अगस्त, सितम्बर, नवम्बर, दिसम्बर वश्चित रहे। कैसी खोजकी लगन ? जब हम तो बड़े आदि अड्डोंमें कुछ लेख लिखे है। इनके अतिरिक्त आनन्दसे बैठे है, विशाल सम्पत्तिका स्वामी जैन लखनादौन, धुनसौर, कांकर, बस्तर, पद्मपुर, पारङ्ग, समाज भी आज अकिश्चिन बनकर जीवन यापन पौनार, भद्रावती आदि प्रचीन स्थानोंमें यदि खुदाई करे यह उचित नहीं। जैनोंका तो प्रथम कर्तव्य है करवाई जाय तो बहुत बड़ी निधि निकलनेकी पूर्ण कि वे अपने कलात्मक खण्डोंको एकत्र करें या सम्भावना है। इन सभी स्थानोंपर जैन प्रतिमाएँ उनपर अध्ययन करें। मैं मानता हूँ आज जैन समाज प्राप्त हुई हैं। यवतमालकी जैन रिसर्च सोसाइटीके के सामने बहुत-सी ऐसी समस्याएँ हैं जिनको कार्यकर्ताओंका ध्यान में इन क्षेत्रोंपर आकृष्ट करता सुलझाना, समयकी गति और शक्तिको देखना अनि. हूं। वे कमसे कम मध्यप्रान्त और बरारके जैन वार्य है, परन्तु जो प्राचीन संस्कृतिक रङ्गमें रङ्गे हुए पुरातत्वपर अन्वेषणात्मक प्रन्थ प्रस्तुत करें। है उनको तो पुरातन अवशेषोंकी रक्षाका प्रश्न ही
भारतीय जैन तीर्थ और मन्दिर आदिका केवल सबसे अधिक महत्वपूर्ण और शीघ्रातिशीघ्र ध्यान वास्तुकलाकी दृष्टिसे यदि अध्ययन किया जाय तो देने योग्य है। यह युग सांस्कृतिक उत्थानका है। विदित हुए बिना न रहेगा कि तक्षणकलाके प्रवाहको स्वतन्त्र भारतका पुनर्निर्माण होने जारहा है। ऐसे जैनौने कितना वेग दिया, पुरातन जैनोंका नैतिक अवमरपर चुप बैठना-जबकि आजका वायुजीवन कलाके उच्चाति उच्च सैद्धान्तिक रहस्योंसे ओत- मण्डल सर्वथा हमारे अनुकूल है-भारी अकर्मप्रोत था, आज कलाकी उपासना स्वतन्त्ररूपसे करना ण्यता और पतनकी निशानी है । यों तो भारत तो रहा दूर परन्तु जो अवशेष निर्मित हैं उनको सरकारने पुरातत्त्वकी खोजका एक स्वतन्त्र विभाग सँभालना तक असम्भव होरहा है। एक लेखकने ही खोल रखा था, जिसके प्रथम अध्यक्ष जनरल ठीक ही लिखा है कि "इतिहास बनाने वाले व्यक्ति कनिंघम ई० सन् १८६२में नियुक्त किये गये थे। इन्होंने तो गये परन्तु उनकी कीर्ति-गाथाको एकत्रित करने और बादमे इसी पदपर आने वाले महानुभावोंने वाले भी उत्पन्न नही होरहे हैं" जैन समाज पर अपने गवेषणा-खुदाई के समय जो जो जैन अवा उपर्यत पंक्ति सोलहोंबाना चरितार्थ होती है। शेष उपलब्ध हुए और जिस रूपमे वे प्राप्त साधनोंके
आजके गवेषणा-युगमें इनकी उपेक्षा करना आधारपर उनका अध्ययन कर सके, उसी रूपम अपनी जानबूझकर अवनति करना है। इनके प्रति यथासाध्य समझने का प्रयास किया। इस विभागकी अन्यथा भाव रखना ही हमारे पूर्वजोका भयङ्कर रिपोर्ट में जैन पुरातन अवशेषोक चित्र और विवरण अपमान है-उनकी कीर्तिलताकी अवहेलना है। भरे पड़े हैं। कहीं विकृतियुक्त भी वर्णन है । डा० सांस्कृतिक पतनसे बढ़कर मंसारमे कोई पतन नहीं जैन्स बर्जेस, कर्नल टॉड, डा० बूलर, डा० भांडारकर है। सुन्दर अतीत ही अनागतकालकी सुन्दर सृष्टि (पिता-पुत्र) डा० गेरिनॉड, डा. गौर हीरा० ओझा, कर सकता है । गड़े मुर्दे उखाड़ना ही पड़ेगा, वे ही मि. नरसिंहाचारियर, मुनि जिनविजयजी, और हमें आगामी युगके निर्माणमे मददगार होंगे। उनके स्व. बाबू पूर्णचन्दजी नाहर आदि अनेकों पुरातत्त्व मौनानुभवसे हमको जो उत्साह-प्रद प्रेरणाएँ मिलती के पण्डितोंने जैन पुरातन अवशेषोंकी जो गवेषणहै वे अन्यत्र कहाँ मिलेगी? आज सारा विश्व अपनी- कर भादर्श उपस्थित किया है वह आज भी अनुअपनी सभ्यताके गहनतम अध्ययनमे व्यस्त है। करणीय है। पूर्व गवेषित साधनोंके आधारपरसे यहाँके विद्वान् एक-एक प्रस्तर स्वण्डको विशिष्ट स्वर्गीय ब्रह्मचारी शीतलप्रमादजीनं "प्राचीन जैन