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अनेकान्त
[वर्ष ९
भी कह बैठे कि मेरे लोटे का पानी इसी वक्त ठण्डा पल्ला लेकर रोने नही लग जाती है। वह अनेकान्ती और गरम है तो अनेकान्तकी सीमामें ही रहेगे। है, वह समझती है कि बहका क्या मतलब है ! पानी अगर सौ दरजे गरम है तो घड़ेके अड़सठ महावीर स्वामी जब गर्भमे आये उसी दिनसे दरजेके पानीसे गरम और चूल्हेपर चढ़े बर्तनके उनके भक्त उन्हे भगवान नामसे पुकारते हैं। ठीक है। एकसौ बीस दरजेके पानीसे ठण्डा है। आह पतीलीमे अनेकान्त ऐसा करनेकी इजाजत देता है। निर्वाण हाथ डालकर लोटेमें डालिये तो आपको इनकी तक और उसके बादसे आजतक वे भगवान ही हैं। बातकी सचाईका पता लग जायगा । यह हुआ हँसता बचपनमे वे रोटी खाते थे, मुनि होकर आहार भी खेलता घरेलू अनकान्त ।
लेते थे। अब कोई यह कहे कि भगवान महावीर रोटी अब लीजिये धर्मका भारी भरकम अनेकान्त । खाते थे, आहार लेते थे तो इसमे भूल कहाँ है ?
एक हिन्दू पीली मिट्टीके एक ढेलेमे कलाया लपेट अनेकांतीको इसे माननेमे कोई कठिनाई नहीं हो कर उसमे गणेशको ला बैठाता है। एक जैन उससे सकती। वही भक्त कुन्दकुन्द स्वामीके पास रहकर भी बढ़कर धानसे निकले एक चावलमे भगवानको यह कहने लगे कि भगवानने कभी खाना खाया ही विराजमान कर देता है। पर वही हिन्दू, कोयले, नही तो इसमे भी भूल कहाँ ? अनेकान्ती जरा बुद्धिखड़िया या गेरुके टुकड़ेमे वैसा करनेसे हिचक ही पर जोर देकर इसे ममझ लेगा। कुन्दकुन्द स्वामी नहीं डरता है और वही जैन एक खण्डित मूर्ति या देह को भगवान नही मानते । जीवको भगवान एक कपड़ा पहने सुन्दर मूनिमे भगवानकी स्थापना मानते है। देहको भगवान मानना निश्चयनय या करनेमे इतना भयभीत होता है मानों कोई बड़ा पाप सत्यनयकी शानकं खिलाफ है। जीव न खाता है, न कर रहा हो। और वही हिन्दू जबलपुरकं धुआंधारमे पीता है न करता है, न मरना है, न जन्म लेता है। जाकर जितिस पत्थरको गणेशजी मान लेता है साँप पवनभक्षी कहलाता है। दो दवाये मिलकर वही जैन मोनागिरिपर चढ़कर अनगढ़ मूर्तियोंको पानी बन जाती है यह बात स्कूलके लड़के भी जानते भगवानकी स्थापना मानकर उनके सामने माथा टेक है। महावीर स्वामीका देह निर्वाणसे एक समय पहले देता है। अतदाकार स्थापनाकी बात दोनों ही तक र्याद सास लेता रहा, लेता रहो। महावीर स्वामारिवाजकी भाङ्ग पीकर भूल जाते हैं। यह घरमे के निर्लेप जीवको इससे क्या। महावीर भगवान अनेकान्ती रहते हुए रिवाजमे कट्टर एकान्ती बन जाते खाना खाते थे और नही भी खाते थे। यह इतना ही है । वे करे क्या ? असलमे धर्ममे अनेकान्तीने अभी ठीक कथन है जितना सेठ हीरालालका यह कह तक जगह ही नही पाई।
बैठना कि मेरा बीमार लड़का रामू पानी पीता भी है रेलमे बैठा एक मुमाफिर यदि यह चिल्ला उठे और नही पीता क्योंकि वह पीकर कय कर देता है, 'जयपुर आगया' तो कोई दसरा मुसाफिर उसके उसको हजम नही होता। अनेकान्तमे वही तो गुण पीछे डण्डा लेकर खड़ा नहीं होता और न उससे है कि वह झगड़का फसला चुटका बजा यही पूछता है कि जयपुर कैसे आगया, क्या जयपुर है । जभी तो मैंने उसका नाम झगड़ा फैसल रखा है। चला आता है जो तू आगया कहता है ? और न यह अनेकान्त घर-घरम है, मन-मनमे है। मन्दिरकहकर उसे दुरुस्त करता है कि हम 'जयपुर आगये' मन्दिरमे नही है, धर्म-धर्मम नही है, राज-राजमे ऐसा कह । कोई बहू यदि अपने बरसोंसे घरसे नहीं है। वहाँ फैलानेकी ज़रूरत है। पढ़ने-पढ़ानेकी भागे निग्वद पतिके सम्बन्धमे अपनी सामके सामने चीज नहीं, लिखने-लिखानेसे कुछ होना श्राना नहीं। यह कह बैठे कि मैं तो सुहागिन होते विधवा हूँ, या अनेकान्तका पौदा अभ्यासका जल चाहता, सहिष्णुता मेरा पति जीता मरा हुआ है तो सास यह सुनकर के खादकी उसे जरूरत है, सर्वधर्म समभावके