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________________ ३७६ ] अनेकान्त [ वर्ष होचुका था । 'यह संघर्ष' धार्मिक हिंसाके अनौचित्य- परन्तु कभी भी उनके भावोंमें विकृति नहीं आई। से प्रारम्भ हुआ । परन्तु धीरे-धीरे वह मानव-समाज इन दो उदाहरणोंसे इम बातमे सन्देह नहीं रह जाता के सभी अङ्गोंमें फैलता गया। इसका क्रमिक विकास कि भारतीय इतिहासमें अहिसाकी प्रतिष्ठा व्यक्तिसमझने के लिये दो एक घटनाओंका अङ्कन कर देना साधना और त्यागके बलपर ही हुई। नेमिकुमार जरूरी है। वैदिक वाङ्गमयमें ऐमी बहुत-सी कहानियों और पाश्वनाथ किसी सम्प्रदायके नहीं थे, क्योंकि का उल्लेख मिलता है जिससे इतना ऐतिहासिक तथ्य सम्प्रदाय उस समय नहीं थे। ये लोग चाहे जिस स्पष्ट निकल आता है कि 'वसु' चैचोमयरके समय वर्गके रहे हों, परन्तु वे उन विचारकोंमे नहीं थे जो धार्मिक सुधारकी एक लहर चली जो यज्ञोंमें पशुके यज्ञमे पशुवलि आदिके समर्थक थे। मै समझता हूँ बजाय अत्रकी आहुति देनेके पक्षमे थी। तथा जो हिमा और अहिसाका यह विचार तभीसे मनुष्यके कर्मकाण्ड और तपकी जगह भक्ति और सदाचारपर साथ चला रहा है जबसे उसमें सोचने बल देती थी। आगे चलकर यही विधि सात्वत- समझनकी बुद्धि आई। विधि कहलाई। इसके साथ वासुदेव कृष्ण संकर्षण उपनिषद और सोलह महाजन-पद-युगमें यह प्रद्युम्न एवं अनुरुद्धका नाम जुड़ा हुया है। यह प्रतिक्रिया अधिक स्पष्टरूपसे दिखाई देने लगती है। सात्वत विधि पूणरूपसे अहिंसक थी। पर इसमे आर्य अब 'जन' से जनपद और जनपदस महाजन अहिंसाका भाव एकाएक नहीं आया, विश्वमें कोई पद संस्कृतिमें पहुँच चुके थे । साथ ही उनमे भी घटना बिना कारण नहीं घटती। सात्वत पूजा महाजनपदसे 'साम्राज्यनिर्माण की प्रतिक्रिया चल विधिक विषयमें भी यही समझना चाहिये। जैन रही थी। हिंसा और अहिंसाका ठीक व्यक्तित्व इस पुराणोंमें यदुकुमार 'नेमिनाथ' के वैराग्यकी घटना समय हमारे सामने आया । यह दो रूपमे व्यक्त हश्रा इस बातका स्पष्ट प्रमाण है किस तरह आर्योंके जीवन एक ओर तो वे लोग थे जो पिछली दार्शनिक और संस्कृतिमें परोपकारके लिये कुछ लोग अपने परम्पराको छोड़नेके लिये प्रस्तुत न थे और उसमे व्यक्तिगत सुखको लात मारकर साधनामय जीवन उनकी पूरी आत्मा थी, परन्तु उसके व्यावहारिक स्वीकार कर रहे थे । नेमिनाथ रथपर बैठे, राजुलको रूपमे उन्होंने अहिसाको स्वीकार कर लिया। इस व्याहने जा रहे थे, रास्तेमे उन्होंने देखा बहुतमे पशु- प्रकार पहले पहल उपनिषदोंमे सुनाई दिया "लवा पक्षी एक बेड़े में घिरे छटपटा रहे हैं। उन्होंने पूछा एते प्रदृढ़ा-यज्ञरूपा" ये यज्ञ फूटी नावकी तरह हैं, क्यों ? उत्तर मिला, साथी क्षत्रिय कुमारोंको भोजन सृष्टिके अन्दर एक चेतन शक्ति है जो उसका संचाके लिये इनका शिकार होगा ? युवकका हृदय करुणा लन करती है, प्रायः उस शक्तिको ब्रह्म कहते हैं, इस और समानानुभूतिसे भर आया, उन्होंने 'मौर' उतार प्रकार इन्द्र, वरुण आदि पुराने वैदिक देवताओंकी कर दीक्षा ले ली। जब राजुलने यह सुना तो वह गद्दीपर उपनिषदोंके विचारकोंने ब्रह्मकी स्थापना कर साध्वी भी उमङ्गोंकी चिता जलाकर गिरनार पर्वन दी! और यज्ञवाली पूजाविधिके बजाय, एक नये पर तपस्या करने लगी। उनके इम साधना और आचरण-मार्गका उपदेश दिया। यह आचरण-मार्ग त्यागमय जीवनका जो असर गुजरात और प्राम- था दुश्चरितसे विराम, इन्द्रियों का वशीकरण, मनकी पासकी लोकसंस्कृतिपर पड़ा वह आज भी अमिट चिता और पवित्रता। कठ-उपनिषदमें मनुष्यकी है। उसके बाद दूसरा उदाहरण पाश्वनाथका है, कि जीवनकी यात्राका चरम लक्ष्य विष्णुपदकी प्राप्ति उन्होंने किस प्रकार सहिष्णुता और धैर्यसे व्यक्तिगत कहा गया है। इन विचारोंसे स्पष्ट है कि 'आत्मतत्त्व' विरोधका बदला चुकाया । एक नहीं कितने ही जन्मों की और आर्योकी चिंताका विकास होरहा था, परन्तु तक वे विरोधी हिंसाका अहिंसक सामना करते रहे इसके सिवा एक और वर्ग था जो आत्मतत्त्वको
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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