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अनेकान्त
जबतक हम इस सर्वसमा संस्कृतिका प्रचार नहीं करेंगे तबतक जातिगत उचत्व नीचत्त्व, स्त्रीतुच्छत्व आदिके दृषित विचार पीढ़ी दर पीढ़ी मानव समाजको पतनकी ओर ले जायेंगे। अतः मानव समाजकी उन्नतिके लिये आवश्यक है कि संस्कृति और धर्म विषयक दर्शन स्पष्ट और सम्यक हों। उसका आधार सर्वभूतमैत्री हो न कि वर्गविशेषका प्रभुत्व या जातिविशेषका उञ्चत्व । इस तरह जब हम इस आध्यात्मिक संस्कृतिके विषयमें स्वयं सम्यग्दर्शन प्राप्त करेंगे तभी हम मानव जातिका विकास कर सकेंगे। अन्यथा यदि हमारी दृष्टि मिथ्या हुई तो हम तो पतित हैं ही अपनी सन्तान और मानव सन्तानका बड़ा भारी अहित उस विषाक्त सर्वकषा संस्कृतिका प्रचार करके करेंगे। अतः मानव समाजके पतनका मुख्य कारण मिथ्यादर्शन और उत्थानका मुख्य साधन सम्यग्दर्शन ही हो सकता है। जब हम स्वयं इन सर्वसमभावी उदार भावोंसे सुसंस्कृत होगे तो वही संस्कार रक्तद्वारा हमारी सन्तानमे तथा विचार-प्रचारद्वारा पास-पड़ोसके मानव सन्तानोंमें जायेंगे और इस तरह हम ऐसी नृतन पीढ़ीका निर्माण करने में समर्थ होगे जो अहिसक समाज-रचनाका आधार बनेगी। यही भारतभूमिकी विशेषता है जो इसने महावीर और बुद्ध जैसे श्रमण सन्तो द्वारा इस उदार आध्यात्मिकताका सन्देश जगतको दिया। आज विश्व भौतिक विषमतासे त्राहि त्राहि कर रहा है। जिनके हाथमें बाह्य साधनोकी सत्ता है अर्थात् आध्यात्मिक दृष्टिसे जो अत्यधिक अनधिकार चेष्टा कर परद्रव्योंको हस्तगत करनेके कारण मिथ्या दृष्टि और बन्धवान् है वे उस सत्ताका उपयोग दूसरी आत्माओंको कुचलने में करना चाहते है। और चाहते है कि संसारके अधिकसे अधिक पदार्थोंपर उनका अधिकार हो और इस लिप्साके कारण वे सघर्ष, हिंसा. अशान्ति, ईर्षा, युद्ध जैसी तामस भावनाओंका मर्जन कर विश्वको कलुषित कर रहे है। धन्य है इस भारतको जो इस बीसवीं सदीमे भी हिंसा बर्बरताके इस दानवयुगमें भी उसी आध्यात्मिक मानवताका सन्देश देनेके लिय गाँधी जैसे सन्तको उत्पन्न किया। पर हाय अभागे भारत, तर ही एक कपूतने, कपूतने नहीं, उस सर्वकपा संस्कृतिने जिसमे जातिगत उच्चत्व, नीचत्व आदि कुभाव पुष्ट हान रह है और जिसके नामपर कराडों धमर्जावी लागोकी श्राजीविका चलती है, उस मन्तके शरीरको गोलीका निशाना बनाया। गॉधीकी हत्या व्यक्तिकी हत्या नहीं है, यह तो उम अहिमक मर्वममा संस्कृतिके हृदयपर उम दानवी साम्प्रदायिक, हिन्दूकी आटमें हिंसक विद्वेषिणी संस्कृतिका प्रहार है। अस्तु, मानवजातिके विकास और समुत्थानके लिये हमे संस्कृति विषयक सम्यग्दर्शन प्राप्त करना ही होगा और आत्माधिकारका सम्यग्ज्ञान लाभ करके उसे जीवनमें उतारना होगा तभी हम बन्धनमुक्त हो सकेगे। स्वयं स्वतन्त्र रह सकेंगे और दूसरोंको स्वतन्त्र रहनेकी उच्चभूमिका तैयार कर सकेंगे।