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________________ "किरण १२ ] [ ४७ और कहा कि इसका सम्यग्दर्शन हुए बिना बन्धन- मोक्ष नही हो सकता । उसकी स्पष्ट घोषणा है The L मानवजातिके पतनका मूल कारण संस्कृतिका मिथ्यादर्शन १. प्रत्येक आत्मा स्वतन्त्र है, उसका मात्र अपने विचार और अपनी क्रियाओं पर अधिकार है, वह अपने ही गुण-पर्यायका स्वामी है । अपने सुधार - बिगाड़का स्वयं जिम्मेदार है । २. कोई ऐसा ईश्वर नही जो जगतके अनन्त पदार्थोंपर अपना नैसर्गिक अधिकार रखता हो, उसका नियन्त्रण करता हो, पुण्य-पापका हिसाब रखता हो और स्वर्ग-नरकमें जीवोंको भेजता हो, सृष्टिका नियन्ता हो । ३. एक आत्माका दूसरी आत्मापर तथा जड द्रव्योंपर कोई स्वाभाविक अधिकार नही है । दूसरी आत्माको अपने आधीन बनानेकी चेष्टा ही अनधिकार चेष्टा है अतएव हिंसा और मिथ्या दृष्टि हैं । ४. दूसरी आत्माएँ अपने स्वयंके विचारोंसे यदि किसी एकको अपना नियन्ता लोकव्यवहार के लिये नियुक्त करती या चुनती है तो यह उन आत्मायांका अपना अधिकार हुआ न कि उस चुनेजानेवाले व्यक्तिका जन्मसिद्ध अधिकार | अतः सारी लोक-व्यवहारव्यवस्था सहयोगपर निर्भर है न कि जन्मजात अधिकारपर । ५. ब्राह्मण क्षत्रियादि वर्ण-व्यवस्था अपने गुण-कर्मके अनुसार है जन्म से नही । ६: गोत्र एक पर्याय में भी बदलता है, वह गुण-कर्मके अनुसार है । ७. परद्रव्यांका संग्रह और परिग्रह ममकार और अहङ्कारका हेतु होनेसे बन्धकारक है । ८. दूसरे द्रव्योंको अपने आधीन बनानेकी चेष्टा ही समस्त अशान्ति, दुःख, संघर्ष और हिसाका मूल है। जहाँ तक अचेतन पदार्थोंके परिग्रहका प्रश्न है यह छीनाझपटीका कारण होनेसे संक्लेशकारक है अतः देय है । ६. स्त्री हो या पुरुष धर्ममे उसे कोई रुकावट नहीं। यह जुदी बात है कि वह अपनी शारीरिक मर्यादाके अनुसार ही विकास कर सकती है । १०. किसी वर्गविशेषका जन्मजात कोई धर्मका ठेका नहीं है । प्रत्येक आत्मा धर्मका अधिकारी है। ऐसी कोई क्रिया धर्म नहीं हो सकती जिसमे प्राणिमात्रका अधिकार न हो । ११. भाषा भावोको दूसरे तक पहुंचानेका माध्यम है अतः जनताकी भाषा ही माय है । १२ . वर्ण, जाति, रङ्ग देश, आदिके कारण आत्माधिकार में भेद नहीं है ये सब शरीराश्रित है । १३. हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई आदि पन्थ-भेद भी आत्माधिकारके भेदक नहीं हैं । आदि । १४. वस्तु अनेक धर्मात्मक है उसका विचार आदि उदार दृष्टिसे होना चाहिये । सीधी बात तो यह है कि हमें एक ईश्वरवादी शासक संस्कृतिका प्रचार इष्ट नहीं है । हमें तो प्राणिमात्रको समुन्नत बनानेका अधिकार स्वीकार करने वाली सर्वसमभावी संस्कृतिका प्रचार करना है ।
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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