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बाध्य होकर छोड़ दिया। जर्मनीने अपने नवयुवकोंसे इस संस्कृतिका प्रचार किया कि जर्मन एक आर्य रक्त है। वह सर्वोत्तम है। वह यहूदियोंके विनाशके लिये है और जगतमें शासन करनेकी योग्यता उसीमें है। यह भाव प्रत्येक जर्मन युवकमें उत्पन्न किया गया। उसका परिणाम द्वितीय महायुद्धके रूपमें मानवजातिको भोगना पड़ा और ऐसी ही कुसंस्कृतियोंके प्रचार से तीसरे महायुद्धकी सामग्री इकट्ठी की जा रही है। भारतवर्षमे सहस्रो वषसे जातिगत उश्चता-नीचता छुआछूत दासीदास प्रथा स्त्रीको पद दलित करनेको संस्कृतिका प्रचार धमके ठेकेदारोने किया और भारतीय प्रजाके बहुभागको अस्पृश्य घोषित किया, खियोंको मात्र भोग विलासकी सामग्री बनाकर उन्हें पशुसे भी बदतर अवस्थामे पहुंचा दिया। रामायण जैसे धर्मग्रन्थमें "ढोलगॅवार शूद्र पशु नारी । ये सब ताइनके अधिकारी।" जैसी व्यवस्थाएँ दी गई
और मानवजातिमें अनेक कल्पित भेदोंकी सृष्टि करके एकवर्गके शोषणको शासनको विलासका प्रोत्साहन दिया, उसे पुष्पका फल बताया और उसके उच्छिष्ट कणोसे अपनी जाषिका चलाई । नारी और शूद्र पशुके समान करार दिय गए और उन्हे ढालकी तरह ताड़नाका पात्र बताया। इस धर्म व्यवस्थाको अाज संस्कृतिके नामसे पुकारा जाता है जिस पुराहितवगकी धमसे आजीविका चलती है उनकी पूरी सेना इस संस्कृतिका प्रचारिका है। पशुआका ब्रह्माने यज्ञके लिये उत्पन्न किया है अतः ब्रह्माजाक नियमके अनुसार उन्ह यज्ञम झाका । जस गाका रक्षाके बहाने मुसलमानोको गालियाँ दी जाती है उन याज्ञिकाका यज्ञशालामे गामधयज्ञ धमके नामपर बराबर होते थे। अतिथि सत्कारके लिय इन्हे गायकी बांछयाका भतो बनानम काइ सङ्कोच नहीं था। कारण स्पष्ट था ब्राह्मण ब्रह्माका मुख है, धमशास्त्रकी रचना उसके हाथमें थी। इस वर्गके हितके लिये वे जो चाह लिख सकत है। उनने तो यहाँ तक लखनका साहस किया है कि-ब्रह्माजीने सृष्टिको उत्पन्न करके ब्राह्मणांको सौप दी थी अर्थात् ब्राह्मण इस सारी सृष्टिके ब्रह्माजासे नियुक्त स्वामी है। ब्राह्मणांका असावधानासे ही दूसरे लोग जगत्के पदार्थोक स्वामी बने हुए है। यदि ब्राह्मण किसाका मारकर भा उसका सम्पत्ति छीन लेता है तो वह अपनी ही वस्तु वापिस लेता है, उसका वह लूट सत्कार्य है वह उस व्यक्तिका उद्धार करता है। इन ब्रह्ममुखोने ऐसी ही स्वार्थ पोषण करनेवाला व्यवस्थाएं प्रचारित की। जिससे दूसरे लोग ब्राह्मणके प्रभुत्वको न भूले । गर्भसे लेकर मरण तक सैकड़ो संस्कार इनकी आजीविकाके लिये कायम हुए। मरणके बाद श्राद्ध वार्षिक वार्षिक आदि श्राद्ध इनकी जीविकाके आधार बने । प्राणियोके नैसर्गिक अधिकारीका अपने आधीन बनानेके श्राधारपर संस्कृतिके नामसे प्रचार होता रहा है। ऐसी दशामें इस संस्कृतिका सम्यग्दशन हुए बिना जगत्मे शान्ति और व्यक्तिकी मुक्ति कैसे हो सकती है। वर्ग विशेषका प्रभुताके लिये किया जानेवाला यह विषैला प्रचार ही मानवजातिक पतन और भारतका पराधानताका कारण हुआ। आज भारतमे स्वातन्त्र्योदय हानेपर भी वही जहरीली धारा संस्कृतिरक्षा के नामपर युवकोके कोमल मस्तिष्कोपर प्रवाहित करनेका पूरा प्रयत्न वही वर्ग कर रहा है। हिन्दीक रक्षा के पीछे वही भाव हैं। पुराने समयमे इस बगने संस्कृतको महना दी थी और संस्कृतके उच्चारणको पुण्य और दूसरी जनभाषा-अपभ्रंशके उच्चारणको पाप बताया था। नाटकोमें स्त्री और शूद्रोस अपभ्रंश या प्राकृत भाषाका बुलवाया जाना उसी भापाधारित उच्चनीच भावका प्रतीक है। आज संस्कृत निष्ठ हिन्दीका समर्थन करनेवालोका बड़ा भाग जनभाषाकी अवहेलनाके भावसे ओत-प्रोत है। अतः जबतक जगत्के प्रत्येक द्रव्यकी अधिकार सीमाका वास्तविक यथार्थ दर्शन न हो तब तक यह धाँधली चलती रहेगी। धर्मरक्षा, संस्कृति रक्षा, गौरक्षा, हिन्दीरक्षा, राष्ट्रीयस्वयंसेवकसंघ, धर्मसंघ आदि बड़े-बड़े आवरण हैं।
जैनसंस्कृतिने आत्माके अधिकार और स्वरूपकी ओर ही सर्वप्रथम ध्यान दिलाया