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कर्ता सिद्धसेनके साथ भी जुड़ गया मालूम होता है और संभवतः इस विशेषणके जुड़ जानेके कारण ही तीनों सिद्धसेन एक ही समझ लिये गये जान पड़ते हैं। अन्यथा. पं० सुखलालजी आदिके शब्दों (प्र० पृ० १०३) में जिन द्वात्रिंशिकाओंका स्थान सिद्धसेनके प्रन्थोंमें चढ़ता हुआ है। उन्हींके द्वारा सिद्धसेनको प्रतिष्ठितयश बतलाना चाहिये था, परन्तु हरिभद्रमूरिने वैसा न करके सन्मतिके द्वारा सिद्धसेनका प्रतिष्ठितयश होना प्रतिपादित किया है और इससे यह साफ ध्वनि निकलती है कि सन्मतिके द्वारा प्रतिष्ठितयश होने वाले सिद्धसेन उन सिद्धसेनसे प्रायः भिन्न हैं जो द्वात्रिंशिकाओंको रचकर यशस्वी हुए हैं।
हरिभद्रसूरिके कथनानुसार जब सन्मतिके कर्ता सिद्धसेन दिवाकर'की आख्याको प्राप्त थे तब वे प्राचीनसाहित्यमें सिद्धसेन नामके विना 'दिवाकर' नामसे भी उल्लेखित होने चाहिये, उसी प्रकार जिस प्रकार कि समन्तभद्र 'स्वामी' नामसे उल्लेखित मिलते हैं। । खोज करनेपर श्वेताम्बरसाहित्यमें इसका एक उदाहरण 'अजरक्वनंदिसेणो' नामकी उम गाथामे मिलता है जिसे मुनि पुण्यविजयजीने अपने छेदसूत्रकार और नियुक्तिकार' नामक लेखमें 'पावयणी धम्मकहीं' नामकी गाथाके माथ उद्धृन किया है और जिसमें आठ प्रभावक प्राचार्योंकी नामावली देते हुए दिवायरो' पदके द्वारा सिद्धमेनदिवाकरका नाम भी मूचित किया गया है। ये दोनों गाथाएँ पिछले समयादिसम्बन्धी प्रकरणके एक फुटनोटमें उक्त लेग्वकी चर्चा करते हुए उद्धृत की जा चुकी हैं। दिगम्बर माहित्यमे 'दिवाकर'का यतिरूपसे एक उल्लेख रविषेणाचार्यके पनचरितकी प्रशस्तिके निम्न वाक्यमें पाया जाता है. जिसमे उन्हें इन्द्र-गुरुका शिष्य, अर्हन्मुनिका गुरु और रविपेणके गुरु लक्ष्मगासेनका दादागुरू प्रकट किया है:
आसीदिन्द्रगुरोर्दिवाकर-यतिः शिष्योऽस्य चाहन्मुनिः ।। तस्माल्लक्ष्मणसेन सन्मुनिरदः शिष्यो रविस्तु स्मृतम् ॥१०३-१६७॥
इस पद्यमें उल्लेखित दिवाकरयतिका सिद्धसेनदिवाकर हाना दो कारणोंसे अधिक सम्भव जान पड़ता है-एक तो समयकी दृष्टिसे और दूसरे गुम-नामकी दृष्टिसे। पद्मचरित वीरनिर्वाणसे १२०३ वर्ष ६ महीने बीतनेपर अर्थात् विक्रमसंवत् ७३४में बनकर समाप्त हुआ है. इससे रविषेणके पड़दादा (गुरुके दादा) गुरुका समय लगभग एक शताब्दी पूर्वका अर्थात् विक्रमकी ७वी शताब्दीके द्वितीय चरण (६२६-६५०)के भीतर आता है जो सन्मतिकार -सिद्धसेनके लिये ऊपर निश्चित किया गया है। दिवाकरके गुरुका नाम यहाँ इन्द्र दिया है, जो इन्द्रसेन या इन्द्रदत्त आदि किमी नामका संक्षिप्तरूप अथवा एक देश मालूम होता है। श्वेताम्बर पट्रावलियोंमें जहाँ सिद्धसेनदिवाकरका नामोल्लेख किया है वहाँ इन्द्रदिन्न नामक पट्टाचार्यके बाद 'अत्रान्तरे जैसे शब्दोके साथ उस नामकी वृद्धि की गई है। हो सकता है कि सिद्धसेनदिवाकरके गुरुका नाम इन्द्र-जैसा होने और सिद्धसेनका सम्बन्ध प्राय विक्रमादित्य अथवा संवत्प्रवर्तक विक्रमादित्यके साथ समझ लेनेकी भूलके कारण ही सिद्धसेनदिवाकरका इन्द्रदिन्न आचार्यकी पट्टवाक्ष-शिष्यपरम्परामे स्थान दिया गया हो। यदि यह कल्पना ठीक है
और उक्त पगमें 'दिवाकरयतिः' पद सिद्धसेनाचार्यका वाचक है तो कहना होगा कि सिद्धसेनदिवाकर रविषेणाचार्यके पड़दादागुरु होनेसे दिगम्बर सम्प्रदायके प्राचाय थे। अन्यथा यह कहना अनुचित न होगा कि सिद्धसेन अपने जीवनमें दिवाकर'की पाख्याको प्राप्त नहीं थे, उन्हें यह नाम अथवा विशेषया बादको हरिभद्रसूरि अथवा उनके निकटवर्ती किसी पूर्बाचार्यने
१देखो, माणिकचन्द्र-ग्रन्थमालामें प्रकाशित रतकरयडभावकाचारकी प्रस्तावना पृ०८। २ दिशताभ्यधिके समासहसे समतीतेऽद्ध चतुष्कवर्षयुक्ते । जिनभास्कर-
बमान-सिद्ध चरितं पनमुनेरिदं निषदम् ॥१२३-१८१ ॥