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________________ सन्मात-सनसनाह [ ४६ - (क) उदितोहन्मत-व्योम्नि सिरसेनदिवाकरः । चित्रं गोभिः क्षितौ जई कविराज-बुध-प्रभा ।। यह विक्रमकी १३वीं शताब्दी (वि० सं० १२५२) के प्रन्थ अममचरित्रका पद्य है। इसमें रमसूरि अलवार-भाषाको अपनाते हुए कहते है कि महन्मतरूपी भाकाशमें सिद्धसेनदिवाकरका उदय हुआ है. आश्चर्य है कि उसकी वचनरूप-किरणोंसे पृथ्वीपर कविराजकीवृहस्पतिरूप 'शेष' कविकी-और बुधकी-बुधप्रहरूप विद्वर्गकी-प्रभा लजित होगईफीकी पड़ गई है। (ख) तमः स्तोमं स हन्तु श्रीसिद्धसेनदिवाकरः । यस्योदये स्थितं मूकैरुलकैरिव वादिभिः॥ यह विक्रमकी १४वीं शताब्दी (सं० १३२४) के प्रन्थ समरादित्यका वाक्य है, जिसमें प्रद्युम्नसूरिने लिखा है कि वे श्रीसिद्धसेन दिवाकर (भज्ञान) अन्धकारके समूहको नाश करें जिनके उदय होनेपर वादीजन उल्लुओकी तरह मूक होरहे थे-उन्हें कुछ बोल नही आता था ।' (ग) श्रीसिद्धसेन हरिभद्रमुरवाः प्रसिद्धास्ते सूरयो मयि भवन्तुतिप्रसादाः । येषां विमृश्य सततं विविधानिवन्धान शास्त्रं चिकीर्षति तनुप्रतिभोऽपि माइक् ॥ यह 'स्थाद्वादरत्नाकर' का पद्य है। इममे १२वी-१३वी शताब्दीक विद्वान वादिदेवसूरि लिखते है कि 'श्रीसिद्धसेन और हरिभद्र जैसे प्रसिद्ध प्राचार्य मेरे ऊपर प्रसन्न होवे, जिनके विविध निबन्धांपर बार-बार विचार करके मर जैसा अल्प-प्रतिभाका धारक भी प्रस्तुत शाके रचनेमे प्रवृन होता है।' (घ) क सिद्धसेन-स्तुतयो महार्था अशिक्षितालापकला क चैषा । तथापि यूथाधिपतेः पथस्थः खलद्गतिस्तस्य शिशर्न शोच्यः ॥ यह विक्रमका १२वी-१३वी शताब्दीक विद्वान आचार्य हमचन्द्रकी एक द्वात्रिंशिका स्तुतिका पद्य है। इसमें हमचन्द्रसूर सिरूसनक प्रति अपनी श्रद्धाञ्जलि अर्पण करते हुए लिखत है कि 'कहाँ ता सिद्धसनकी महान् अथवाला गम्भीर स्तुतियाँ पार कहाँ अशिक्षित मनुष्यांके आलाप-जैसी मरी यह रचना ? फिर भी यूथके अधिपनि गजराजके पथपर चलता हुआ उसका बच्चा (जिस प्रकार) सलितगति होता हुआ भी शांचनीय नही होता-उसी प्रकार मै भी अपने यूथाधिपति आचार्य के पथका अनुमरण करता हुआ स्खलितगति हानेपर शोचनीय नहीं हूँ।' यहाँ स्तुतयः' 'यूथाधिपतेः' और 'तस्य शिशुः' ये पद खास सौरसे ध्यान देने योग्य हैं। 'स्तुनयः' पदके द्वारा सिद्धसेनीय प्रन्याकम्पमें उन द्वात्रिशिकाओंकी सूचना कांगई है जो स्तुत्यात्मक हैं और शेष पदोंक द्वारा सिद्धसेनको अपने सम्प्रदायका प्रमुख आचार्य और अपनेका उनका परम्परा शिष्य घोषित किया गया है। इस तरह श्वेताम्बर सम्प्रदायके आचार्यरूपम यहाँ वे सिद्धसेन विवक्षित हैं जो कतिपय स्तुतिरूप द्वात्रिशिकाओके कर्ता है. न कि व सिद्धसेन जो कि स्तुत्यतर द्वात्रिशिकाओक अथवा खासकर सन्मतिसूत्रके रचयिता है। श्वेताम्बरीय प्रबन्धामे भा, जिनका कितना हो परिचय ऊपर आचुका है, उन्हीं सिद्धसनका उल्लेख मिलता है जो प्रायः द्वात्रिंशिकाग्री अथवा द्वात्रिशद्वात्रिशिका-स्तुतियोके कर्तारूपमे विवक्षित हैं। सन्मतिसूत्रका उन प्रबन्धोमें कहीं कोई उल्लेख ही नहीं है। ऐसी स्थितिमें सन्मतिकार सिद्धसेनके लिय जिस दिवाकर' विशेषणका हरिभद्रमूरिने स्पष्टरुपसे उल्लेख किया है वह बारका नाम-माम्यानिक कारण द्वात्रिंशिकाओंके कर्ता मिटमेन न्यायाला
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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