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________________ 1 वर्ष ५वीं गाथाकी व्याख्या करते हुए पट्टाचार्य इन्द्रदिन्नसूरिके अनन्तर और दिन्नसूरिके पूर्वकी न्याख्यामें स्थित है । इन्द्रदिन्नसूरिको सुस्थित और सुप्रतिबुद्धके पट्टपर दसवाँ पट्टाचार्य बतलानेके बाद “अत्रान्तरे" शब्दोंके साथ कालकसूरि आर्यरवपुट्टाचार्य और आर्यमंगुका नामोल्लेख समयनिर्देशके साथ किया गया है और फिर लिखा है: "वृद्धवादी पादलिप्तश्चात्र । तथा सिद्धसेनदिवाकरो येनोजयिन्या महाकाल-प्रासाद-रुद्रलिङ्गस्फोटनं विधाय कल्याणमन्दिरस्तवेन श्रीपार्श्वनाथबिम्बं प्रकटीकृतं, श्रीविक्रमादित्यश्व प्रतिबोधितस्तद्राज्यं तु श्रीवीरसप्ततिवर्षशतचतुष्टये ४७० संजातं ।" इसमें वृद्धवादी और पादलिप्तके बाद सिद्धसेनदिवाकरका नामोल्लेख करते हुए उन्हें उज्जयिनीमें महाकालमन्दिरके रुद्रलिङ्गका कल्याणमन्दिरस्तोत्रके द्वारा स्फोटन करके श्रीपार्श्वनाथकेबिम्बको प्रकट करनेवाला और विक्रमादित्यराजाको प्रतिबोधित करनेवाला लिखा है। साथ ही विक्रमादित्यका राज्य वीरनिर्वाणसे ४७० वर्ष बाद हुआ निर्दिष्ट किया है, और इस तरह सिद्धसेन दिवाकरको विक्रमकी प्रथम शताब्दीका विद्वान् बतलाया है, जो कि उल्लेग्वित विक्रमादित्यको गलतरूपमे समझनेका परिणाम है। विक्रमादित्य नामक अनेक राजा हुए हैं। यह विक्रमादित्य वह विक्रमादित्य नहीं है जो प्रचलित संवतका प्रवर्तक है, इस बातका पं० सुखलालजी आदिने भी स्वीकार किया है। अस्तु, तपागच्छ-पदावलीका यह वृत्ति जिन आधारोपर निर्मित हुई है उनमे प्रधान पद तपागच्छका मुनि सुन्दरसूरिकृत गुर्वावलाको दिया गया है, जिसका रचनाकाल विक्रम सवत् १४६६ है। परन्तु इस पट्टावलाम भी सिद्धसेनका नामोल्लेख नहीं है। उक्त वृत्तिसे कोई १०० वर्ष बादके (वि० सं० १७३६ के बादक) बने हुए पट्टावलीसारोद्धार' ग्रन्थमे सिद्धसेनदिवाकरका उल्लेख प्रायः उन्ही शब्दोमे दिया है जा उक्त वृत्तिमे 'तथा' से 'संजातं' तक पाय जात है । और यह उल्लेख- इन्द्रदिन्नसूरिक बाद · अत्रान्तरे" शब्दोके साथ मात्र कालकमूरिके उल्लेखानन्तर किया गया है-आयखपुट, आर्यमंगु, वृद्धवादी और पादलिप्त नामके आचार्योका कालकसूरिक अनन्तर और सिद्धसेनक पूर्वमें कोई उल्लेख ही नहीं किया है। वि० सं० १७८६ से भी बादकी बनी हुई 'श्रीगुरुपट्टावली' मे भी सिद्धसेनदिवाकरका नाम उज्जयिनीकी लिङ्गस्फोटन-सम्बन्धी घटनाक साथ उल्लेखित है । इस तरह श्वे. पट्टावलियों-गुर्वावलियोमें सिद्धसेनका दिवाकररूपमे उल्लेख विक्रमकी १५वीं शताब्दीके उत्तरार्धसे पाया जाता है, कतिपय प्रबन्धोमें उनके इस विशेषणका प्रयोग सौ-दो मौ वर्ष और पहलेसे हुआ जान पड़ता। रही स्मरणाकी बात. उनकी भी प्रायः ऐसा ही हालत है-कुछ स्मरण दिवाकर-विशेषणका साथमे लिय हुए है और कुछ नही है। श्वेताम्बर साहित्यसे सिद्धसेनके श्रद्धाञ्जलिरूप जो भी स्मरण अभी तक प्रकाशमें आये हैं वे प्रायः इस प्रकार है: १ देखो, मुनि दर्शनविजय-द्वारा सम्पादित 'पट्टावलीसमुचय' प्रथम भाग । २ "तथा श्रीसिद्धसेनदिवाकरोपि जातो येनोजयिन्यां महाकालप्रासादे रुद्रलिगस्फोटनं कृत्वा कल्याणमन्दिर स्तवनेन श्रीपार्श्वनाथबिम्ब प्रकटीकृत्य भीविक्रमादित्यराजापि प्रतिबोधितः भीवीरनिर्वाणात् सप्ततिवर्षाधिक शतचतुष्टये ४७०ऽतिक्रमे भीविक्रमादित्यराज्य सजातं ॥१०॥ पट्टावलीसमुख्य पृ० १५० ३ "तथा श्रीसिद्धसेन दिवाकरेणोजयिनीनगर्यो महाकाल प्रासादे लिंगस्फोटनं विधाय स्तुत्या ११ काव्ये श्रीपार्श्वनाथविम्ब प्रकटीकृतं, कल्याणमन्दिरस्तोत्रं कृतं ।"-पा. स. पू. १६६।
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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