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________________ किरण ११] सन्मतिसिद्धसेना - नियमसारकी टीकामें पद्मप्रभ मलधारिदेवने सिद्धान्तोदनीष सिद्धसेने....."बन्दे वाक्पके द्वारा सिद्धसेनकी वन्दना करते हुए उन्हें सिद्धान्तकी जानकारी एवं प्रतिपादनकौशलरूप उचनीके स्वामी' सूचित किया है। प्रतापकीर्तिने प्राचार्यपूजाके प्रारम्भमें दी हुई गुर्वावलीमें "सिद्धान्तपाथोनिधिलब्धपारः श्रीसिद्धसेनोऽपि गणस्य सारः" इस वाक्पके द्वारा सिद्धसेनको 'सिद्धान्तमागरके पारगामी' और 'गणके मारभूत' बतलाया है । मुनिकनकामरने 'करकंडुचरिउ'मे, सिद्धसेनको समन्तभद्र तथा प्रकलङ्कदेवके ममकक्ष 'श्रुतजलके समुद्र" रूपमें उल्लेखित किया है। ये सब श्रद्धांजलि-मय दिगम्बर उल्लेख भी सन्मतिकार-सिद्धसेनसे सम्बन्ध रखते हैं, जो खास तौरपर सैद्धान्तिक थे और जिनके इस सैद्धान्तिकत्वका अच्छा आभास प्रन्थके अन्तिम काण्डकी उन गाथाओं (६१ आदि)से भी मिलता है जो श्रुतधर-शब्दसन्तुष्टों, भक्तमिद्धान्नज्ञो और शिष्यगणपरिवृत-बहुश्रुतमन्योकी आलोचनाको लिए हुए है। श्वेताम्बर सम्प्रदायमें चाय मिद्धमेन प्रायः 'दिवाकर' विशेषण अथवा उपपद (उपनाम)के माथ प्रमिद्धिको प्राप्त हैं। उनके लिये इस विशेषण-पदके प्रयोगका उल्लेख श्वेताम्बर साहित्यमे सबसे पहले हरिभद्रसूरिक 'पञ्चवस्तु' प्रन्थमे देखनेको मिलता है, जिसमें उन्हें दुःषमाकालरूप गत्रिके लिय दिवाकर (सूर्य)के ममान होनेसे दिवाकर की प्राग्न्याको प्राप्त हुए लिखा है । इसके बादसे ही यह विशेषण उधर प्रचारमें आया जान पड़ता है; क्योकि श्वेताम्बर चूर्णिया तथा मल्लवादीके नयचक्र-जैसे प्राचीन ग्रन्थोंमें जहाँ मिद्धसेनका नामाल्लेग्व है वहाँ उनके साथम दिवाकर' विशेपणका प्रयोग नहीं पाया जाता है। हरिभद्र के बाद विक्रमकी ११वी शताब्दीके विद्वान अभयदेवमूरिने सन्मति का प्रारम्भमें से उमी दुःपमाकालरात्रिक अन्धकारका दूर करनेवालेके अथमे अपनाया है। श्वेताम्बर सम्प्रदायकी पट्टावलियांमे विक्रमी छठी शताब्दी आदिकी जो प्राचीन पट्टावलिया है-जैस कल्पसूत्रस्थविरावली(थेरावली) नन्दीसूत्रपट्टावलो. दुःषमाकाल-श्रमणसंघस्तव-उनम तो सिद्धसनका कहीं काई नामोल्लख ही नहीं है । दुःषमाकालश्रमणसंघकी अवचूरिम, जो विक्रमकी हवी शताब्दीसे बादकी रचना है, सिढसनका नाम जमर है किन्तु उन्हे दिवाकर' न लिखकर 'प्रभावक' लिखा है और साथ ही धर्माचार्यका शिष्य सूचित किया है-वृद्धवादीका नहीं: "अत्रान्तरे धर्माचार्य-शिष्य-श्रीसिद्धसेन प्रभावकः ॥" दसरी विक्रमी १५वी शताब्दी आदिकी बनी हुई पट्टावलियोंमे भी कितनी ही पट्टावलियाँ पसा हैं जिनमे सिद्धसनका नाम नहीं है-जैसे कि गुरुपर्वक्रमवर्णन, तपागच्छपट्टावलासूत्र, महाबारपट्टपरम्परा, युगप्रधानमम्बन्ध (लाकप्रकाश) और मूरिपरम्परा। हाँ, तपागच्छपट्टावलासूत्रको वृत्तिम. जा विक्रमी १७वी शताब्दी (सं० १६४८)की रचना है, सिद्धसेनका 'दिवाकर' विशेषणके माथ उल्लेख जरूर पाया जाता है। यह उल्लेख मूल पट्टावलीकी १ ता मिसेण मुममतभद्द अकलकदेव सुअजलसमुद । क. २ २ श्रायरियमिद्धमेणेण मम्मइए पठिअजमेगा । दूसमाणमा-दिवागर कप्यन्तणो तदबावण ॥१०४८ ३ देखो, सन्मतिसूत्रको गुजराती प्रस्तावना पृ० ३६, ३७ पर निशीथचूर्णि (उद्देश ४) और दशार्गिके उल्लेख तथा पिछले समय-सम्बन्धी प्रकरणम उद्धृत नयचक्रके उल्लेख । ४ "इति मन्वान प्राचार्यों दुषमाऽरसमाश्यामासमयोद्भतसमस्तजनाहार्दसन्तमसविध्वंसकत्वेनावासयथार्थाभिधानः सिद्धसेनदिवाकरः तदुपायमतसम्मत्याख्यप्रकरणाकरण प्रवर्तमानः ..... स्तबामिधायिकां गाथामाह।"
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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