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अनेकान्त
पुराणको शकसम्बत् ७०५में बनाकर समाप्त करनेवाले श्रीजिनसेनाचार्यने पुराणके अन्तमें दी हुई अपनी गुर्वावलीमें सिद्धसेनके नामका भी उल्लेख किया है। और हरिवंशके प्रारम्भमें समन्तभद्रके स्मरणानन्तर सिद्धसेनका जो गौरवपूर्ण स्मरण किया है वह इस प्रकार है:जगत्प्रसिद्धबोधस्य वृषभस्येव निस्तुषाः । बोधयन्ति सता बुद्धि सिद्धसेनस्य सूक्तयः॥३०॥
इसमें बतलाया है कि सिद्धसेनाचार्यकी निर्मल सूक्तियाँ (सुन्दर उक्तियाँ) जगत्प्रसिद्ध-बोध (केवलज्ञान)के धारक (भगवाम् ) वृषभदेवकी निर्दोष सूक्तियोंकी तरह सत्पुरुषोंकी बुद्धिको बोधित करती हैं-विकसित करती हैं।'
यहाँ मूक्तियोंमें सन्मतिके साथ कुछ द्वात्रिशिकाओंकी उक्तियाँ भी शामिल समझी जा सकती है।
उक्त जिनसेन-द्वारा प्रशमित भगवजिनसेनने श्रादिपुगणमें सिद्धसेनको अपनी हार्दिक श्रद्धाञ्जलि अर्पित करते हुए उनका जो महत्वका कीर्तन एवं जयघोष किया है वह यहाँ खासतौरसे ध्यान देने योग्य है:"कवयः सिद्धसेनाद्या वयं तु कवयो मताः । मण्यः पनरागाद्या ननु काचोऽपि मेचकः । प्रवादि-करियूथाना केशरी नयकेशरः । सिद्धसेन कवियिाद्विकल्प-नखरांकुरः ॥"
इन पद्योमेमे प्रथम पद्यमें भगवजिनसेन जो स्वयं एक बहुत बड़े कवि हुए हैं. लिम्वते हैं कि 'कवि तो (वास्तवमें) मिद्धसेनादिक हैं. हम नो कवि मान लिय गय है। (जैसे) मरिण तो वास्तवमें पद्मगगादिक है किन्तु काच भी (कभी कभी किन्हीके द्वाग) मेचकमणि समझ लिया जाता है। और दूसरे पद्यमे यह घोषणा करते है कि जो प्रवादिरूप हाथियों के ममूहके लिय विकल्परूप-नुकीले नम्बोमे युक्त और नयरूप केशरोको धारण किये हुए केशरीसिंह हैं वे मिद्धसन कवि जयवन्न हो-अपने प्रवचन-द्वारा मिथ्यावादियोके मतांका निरमन करते हुए सदा ही लोकहदयामें अपना मिक्का जमाए रग्वे-अपने वचन-प्रभावको अङ्कित किय रहें।'
यहाँ सिद्धसेनका कविरूपमे स्मरण किया गया है और उसीमे उनके वादित्वगुणको भी समाविष्ट किया गया है। प्राचीन समयमें कवि माधारण कविता-शायरी करनेवालोको नहीं कहते थे बल्कि उम प्रतिभाशाली विद्वानको कहते थे जो नये-नय सन्दर्भ, नई-नई मौलिक रचनाएँ तय्यार करनेमे ममर्थ हो अथवा प्रतिभा ही जिसका उज्जीवन हो, जो नाना वर्णनाओंमें निपुण हो. कृती हो. नाना अभ्यामोंमें कुशाग्रबुद्धि हो और व्युत्पत्तिमान (लौकिक व्यवहारोमें कुशल) हो । दृमरे पद्यमे सिद्धसेनको केशरी-सिहको उपमा देते हुए उसके साथ जो 'नय-केशरः' और विकल्प-नवराकरः' जैसे विशेषण लगाये गये हैं उनके द्वारा खास तौरपर सन्मतिसूत्र लक्षित किया गया है. जिसमें नयोका ही मुख्यतः विवेचन है और अनेक विकल्पोद्वारा प्रवादियोंके मन्तव्यों-मान्यसिद्धान्तोका विदारण (निरसन) किया गया है। इमी मन्मतिसूत्रका जिनसेनने जयधवला'मे और उनके गुरु बीरसेनने धवलामें उल्लेख किया है
और उमके माथ घटित किये जानेवाले विरोधका परिहार करते हुए उसे अपना एक मान्य प्रन्थ प्रकट किया है, जैसा कि इन सिद्धान्त प्रन्थोके उन वाक्योसे प्रकट है जो इस लेखके प्रारम्भिक फुटनाटमें उद्धृत किये जा चुके है। १ समिद्धसेनोऽभय भीमसेनको गुरू परो तो जिन-शान्ति-सेनको ।।६६-२६।। २ "कवितनसन्दर्भः" । "प्रतिभोजीवनो नाना-वर्णना निपुणः कविः । नानाऽभ्यास-कुशाग्रीयमतिभ्युत्पत्तिमान् कविः ॥"
-अलङ्कारचिन्तामणि ।