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अनेकान्त
ऐसा खोद डाला है कि हमारा सामाजिक वर्तमान (दृष्ट) ही विरूप और नष्ट नहीं हुआ है अपितु सुभ बिष्यको कल्पना (इ) भी अत्यन्त अस्पष्ट और निराशाजनक होगई है | यह सब हुआ धर्मके नशेके कारण, धर्मके कारण नहीं । इतिहास इस बानका साक्षी है कि अमलम धर्मोन भारतमे इम्लाम या उसकी संस्थापर कभी आक्रमण नही किया है । इतना ही नही, मुसलम श्राक्रमणके बाद ही सब प्रकार से मुसलमानां द्वारा सताये जानेपर भी अमुसलिम भारतने उन दुर्घटनाओं को भुला ही दिया है। यही अवस्था प्राचीन भारतीय सम्प्रदायों और धर्मों के पारस्परिक कलह और दमनकी हुई है। तथापि मनुष्यमे इतना विवेक नहीं जागा कि धर्म "जीव उद्धार" की कला है । जिसे जहाँ विशुद्धि मिले, उसे वही स्वतन्त्रता पूर्वक रहने दिया जाय। क्योंकि जो सत्य रूप से किसी भी धर्मको मानते हैं, वे कभी आपस नहीं लड़ते । फलत' न इम्लाम खतरेम हे और हिन्दू या यहूदी धर्म ही विश्वका स्वर्ग बना सकता है। . मनुष्य को अपने आप अपनी दृष्टि बनाने, ज्ञान प्राप्त करने और आचरण करने की स्वतन्त्रता होनी ही चाहिये। भगवान महावीरक इस समन्मभद्र धर्मक द्वारा ही हम भारत तथा फिलिस्तीन आदि देशोंकी तथाक्त धार्मिक गुत्थिया सरलता से सुलझा सकते हैं।
[ वर्ष ९
भारतीय किसीको छुरा भोंक देता है, आग लगा देता है, दूसरे की बहू-बेटी को ले भागता है और कभी तथा कहीं भी बलात्कार करता है । हमारे सामाजिक वर्तमान (दृष्ट) की निस्सारता और पतन तो स्पष्ट हैं किन्तु यदि इन वृत्तियों का निरोध न हुआ तो भविष्य का अनुमान (दृष्ट) करते ही रोमांच हो आता है, प्राण सिहर उठते है। हिंसककी हिंसा, चोरकी चोरी, झूठे को धोखा, व्यभिचारीकी बहिन बेटी के साथ व्यभिचार और पूजीपतिकं बिरोधके लिये पुजीपति बनना ही हमारी नीति और आदर्श होगये है जैमा कि आजके विश्वमे स्पष्ट दिखाई देता है तां साम्यवाद और समाजवाद, सामन्तशाही और नादिरशाही सभी बदतर सिद्ध होगे। विध्वम और पतनकी गति इतनी तेज होगी कि गत ४२ वर्षोंकी अभूतपूर्व वैज्ञानिक विध्वंस प्रणाली भी उसके सामने वैसी लगेगी, जैसी बुन्देलकी तलवार आज अणुबमक सामने लगती है। आजका सर्वतोमुख पतन इतना व्यापक है कि कुछ समय और बीतते ही वह स्वभाव मान लिया जायगा। क्योंकि आज बहुजनका जीवन तो शिथिलाचार की ओर बढ़ ही चुका है। "महाजन को भी श्रमयत होने अधिक समय न लगेगा और फिर मयत ही ' पन्थ' या सहज जीवन हो जायगा । आजके विश्वमं किमीको यदि खतरा है तो वह है संस्कृति या मानवताको । चाहे पूजीवादी अमेरिका हो या समाजवादी रूस, सब ही इस खतरेकी चर्चा करते है। किन्तु किसी भी वादके अनुयायिओंका जीवन ऐसा नही हैं जिससे मानवताकी सुरक्षाकी आशिक भी अशा बंधे ।
धर्मनीति
सामाजिक स्याद्वाद
धार्मिक अमरताकी राक्षसी सन्तानका ही नाम सामाजिक अनाचार या अस्याद्वाद है । आधुनिक युगकं "वाद" या धर्मकं पक्षपातने अनगिनती हानियों और अत्याचार किये है। किन्तु उन सबका सम्राट तो वह वृत्ति है जिसके कारण मनुष्य कुकृत्योंको आज निःसकाच भावसे कर रहा है जिनके करने की शायद उसने कल्पना भी न की होगी । मुसलिम लीगने भारतकी अनेक हानियाँ की हैं, उनमें घातक तो वह अनाचार है जिससे उत्तेजित होकर अमुसलिम भारतीयोंने भी उसकी पुनरावृत्ति की हैं । आज मुसलिमके समान ही अमुसलिम
तब क्या यह मान लिया जाय कि मनुष्यका सुधार नहीं ही हो सकता है । तथोक्त वैज्ञानिक प्रतीकार असफल है तब और क्या किया जाय ? उत्तर कठिन नही है । यदि दो अणुबमोंने जापानका लङ्का-दहन कर दिया तो प्रियदर्शी गाँधीजीने भी तो हिन्दुत्व के कलङ्क - गोली मारने वालेको हाथ जोड दिये थे। यह दृष्टि, ज्ञान और आचरण कहाँ