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किरण ४ ]
मटियामेंट करनेमे लगाये हैं जिनकी शिक्षा भगवान महावीरने दी थी। इसीलिये बनार्डशा जैसे व्यक्ति की आँखें वर्तमान सभ्यताके गाढ़ अन्धकारको चीरती हुई वीर प्रभुके उपदेशपर ठिठककर रह गई हैं। क्योंकि रूस - अमेरिका की प्रतियोगिता, तानाशाही के जन्मकी प्राशङ्का, और मुसलिम अमुसलिम अकारण वैमनस्यका विकार आदिका अन्त शोषित और शोषक द्वन्द्वका विनाश तथा नैतिकताका पुनरुद्धार उसी प्रणाली से संभव है जिसमे "दृष्ट और इष्टका विरोध नही है" जैसा कि वीरप्रभुने कहा था । राजनैतिक अस्याद्वाद
जय स्याद्वाद
विगत विश्व युद्धकं घावोंपर अभी पट्टी भी नहीं बँध पाई है। कुपथगामी वीर जर्मन राष्ट्र समता, स्वतन्त्रता और स्वजनताके हामी राष्ट्रके पैरों के तले कराह रहा है। वर्षों बीत गये पर कोई अन्तिम संधि नही हो सकी है। यह सब होते हुये भी तीसरे विश्व युद्ध की तैयारी होने लगी हैं। खुले आम अमेरिका और रूसने अपने दल बनाने प्रारम्भ कर दिये है । दोनों दलो की इस वृत्तिने वर्तमान (दृष्ट) की प्रगतिको ही नहीं रोक दिया है श्रपितु भविष्य की सभावना (इष्ट) को भी अन्धकाराच्छन्न कर दिया है । मोट रूपसे देखनेपर कोई ऐसा कारण सामने नही आता जो रूस और अमेरिकाकं मनोमालिन्यके औचित्यको सिद्ध कर सके । तथोक्त जाग्रत राजनीतिज्ञ कहते है कि साम्यवादी रूम पूजीवादी अमेरिकाके प्रसारकी कैसे उपेक्षा करें ? किन्तु दोनों देशोंके जन तथा शासनका पर्यवेक्षण करनेपर कोई ऐसी मलाई या बुराई नहीं मिलती जो एकमे ही हो, दूसरे मे बिल्कुल न हो। दोनों देश उत्पादन, संचय तथा वितरणको खूब बढ़ा रहे है । यदि एक व्यक्तिगत रूपसे तो दूसरा समष्टिगत रूपसे । दोनों देशोंका आदर्श भौतिक (जड़) भोगोपभोग सामग्रीका चरम विकास हैं। अपने दलके लोगों, राष्ट्रोंकी धन-जनसे सहायता में कोई नहीं चूक रहा है । साधन, साध्य और फलकी एकता दृष्टि या 'वाद' भेदकी हल्कीसी छाया भी नहीं दीखती है । तथापि पग पगपर 'दृष्टि' या 'वाद'
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भेदकी दुहाई दी जाती है। और एक दूसरेको अपना घातक शत्रु मान बैठा है। इस प्रकार स्पष्ट है कि कल्पित दृष्टिभेद ही विश्वके वर्तमानको प्रत्यक्ष रूपसे बिगाड़े हुये है और पाप तथा दुखःमय भविष्य की कल्पना करा रहा है । जब कि साम्यवाद तथा जनतन्त्रवादकं मृढ़ग्राहको छोड़कर अमेरिका-रूस विश्वको शान्ति, सुख और सदाचारकी ओर सरलता से ले जा सकते है । यह तभी सम्भव है, जब हम स्याद्वाद या बौद्धिक अहिसा या सब दृष्टियों से विचारना अथवा उदार दृष्टिसे काम ले जो प्रत्यक्ष ही संघर्ष और अशान्तिसे बचाता है तथा मैत्री और प्रमादपूर्ण भविष्य की कल्पना कराता है। धार्मिक अस्याद्वाद
जहाँ राजनैतिक विचार सहिष्णुता से वर्तमान विश्वमे मध्य-पश्चिमी योरुप, अमेरिका, चीन, बर्मा आदिकी समस्याएँ सरलतामे सुलझ सकती है, वहीं धार्मिक विचार सहिष्णुता द्वारा मुसलिम तथा
मुसलिम राम्रोंके बीच चलने वाला संघर्ष भी शान्त हो सकता है। सन् १९२४ के बादसे धार्मिकता या साम्प्रदायिकता के नामपर भारतमे जो हुआ हैं, उससे साधारणतया साम्प्रदायिकता और विशेष रूपसे इस्लाम की ओर से की गई इतिहास सिद्ध आक्रमकता और वर्वरताकी पुष्टि तो होती ही है, साथ ही साथ यह भी स्पष्ट हो गया है कि इस धार्मिक उन्मादसे किसी भी धर्म या सम्प्रदायका वास्तविक प्रचार और प्रसार हो ही नहीं सकता। यदि इसके द्वारा कुछ हुआ है तो वह है सामाजिक मर्यादाओंका लोप और अनैतिकताका अनियन्त्रित प्रचार |
अतीतको भूलकर यदि १४ अगस्त सन ४६ के बादके भारतपर ही दृष्टि डाल तो ज्ञात होता है कि 'साक्षात् क्रिया' माने मारकाट, चारा, डकैती, अप हरण तथा नारकीय व्यभिचार; मुसलिम लीग, हिन्दू महासभा तथा राष्ट्रीय स्वयं सेवकसङ्घ मान देशद्रोह और मानवताकी फॉमा | इस प्रकार धर्म और सम्प्रदाय के नाम पर इधर डेढ़ वर्षम जो हुआ है, उस ने भारतका सनातन विरासत नैतिकताको विका