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२५४६ वर्ष बाद
जय स्याहाद [ले० --प्रो० गोरावाला खुशाल जैन एम० ए०, साहित्याचार्य]
"दृष्टष्टाविरोधतः स्याद्वादः ।" (स्वामी ममन्तभद्र) उन्मनि नहीं अवनति
कर देती है। अपनेको पूर्वजोंसे सभ्यतर मानने वाला भगवान महावीरकी २५४७वीं जन्म-जयन्ती यह मनुष्य कह ही उठता है कि ये ढाई हजार वर्षे मनानेका विचार करते ही उन परिस्थितियोंका व्यर्थ नहीं गये है। हमने आशातीत उन्नति की है। अनायास स्मरण हो आता है जिनका प्रतीकार करके जहाँ अमेरिकाने उत्पादनकी समस्याको सुलझा दिया लिच्छविकुमार सन्मतिने अनादि मागका प्रकाश है, वहीं रूसने वितरणरीतिको सम कर दिया है। किया था और अपनी तीर्थकर मज्ञाको सार्थक एक ओर यदि हिटलर और मुमोलिनीने हिंसाका बनाया था। चिर अतीनका ध्यान निकटतम वर्तमान ही डट्का पीटा था तो दूसरी ओर युगपुरुष, मूतिमानपर दृष्टि डालनेके लिये लुभाता है। आधुनिक प्रावि- भारत, प्रियदर्शी गाँधीजीने अहिंसाकी शीतल मन्द प्कार तथा ऐहिक सुख साधनकी अनियन्त्रित सामग्री सुगन्ध मलयानिलका प्रवाह किया था। यदि अमेक्षण भरके लिये शिरको ऊँचा और सीनेको तना रिका, रूस नथा अंग्रेजोंकी विजयको पशुबलकी राज्यका भार आया है वह छाटामा बालक है। मर्वोपरि जीत कहा जाय, तो सत्य और अहिसाके प्रभावशाली शामकके न होनेस राज्यमं अराजकता बल पर प्राप्त सक्रिय तथा निष्क्रिय भारतकी दो भागों मच रही है। आप आइये ।' वह प्रकरण बाँचकर म विभक्त स्वतन्त्रता भी नैतिक बलकी अभूतपूर्व विजय भाखोंमे आँस जाते है। कहाँ छह खण्ड अधि- है। आज समयकी तराजूके एक पलडेपर अमेरिकापति चक्रवर्तीकी रानी और कहाँ रक्षाकं लिये दसरे का अणुबम है और दूसरेपर गाँधीजीकी अहिसामय को पत्र लिखता है ? कल जा रक्षक थी वह आज नीति । अनायास ही ऐसा प्रतीत होता है कि हम उस रक्षाके लिये दमरोंका मंह ताकती है। भैया । यही तो युगसे जारहे हैं जिसमें प्रत्येक वस्तु संभवत: विकामसंमार है, मसारका स्वरूपऐसा ही है।
की चरमसीमा तक पहुंच चुकी है। किन्तु वास्तत्याग करनेसे कोई कहे कि हमारी सम्पत्ति नष्ट विकता इसके ठीक विपरीत है। क्या आज दृष्टिभेदके हो जाती है मो श्राज नक ऐसे उदाहरण देखने में नहीं कारण व्यक्ति-भेद और राष्ट्र-वैमनस्य नहीं है क्या पाये कि कोई दान देकर दरिद्र हा हो।
अहिंमा पूज्य गाँधीजीको गोली मार मनुष्यकी जब वमन्त याचक भये दीने तरु मिल पात । हिंस्रवृत्ति-नारकीयतासे भी नीचे नहीं चली गई है? इससे नव पल्लव भये दिया व्यर्थ नहि जात ॥ निःशस्त्रीकरणका राग अलापते-अलापते क्या मनुष्य
एक कविकी यह कितनी सुन्दर उक्ति है। जब ने महामारू-अस्त्र अणुबम नहीं बना डाला है ? क्या वमन्त याचक होता है तब वृक्ष पतझड़ बन जाते हैं- धर्मके नामपर हिंसा, चोरी, झूठ, अकल्पिन व्यभिअपने-अपने पत्ते दे डालते हैं। यही कारण है कि चार तथा संचयका ताण्डव नहीं होरहा है ? सच उनमें नये-नये पत्त पैदा होजाते हैं।
तो यह है कि मनुष्यने ये ढाई हजार वर्ष मंकल्प पूर्वक अपनी अवनति और उन सब श्रादीका