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किरण ४ }
वह मेरे पैर दाबने लगा और रातके ३ बजे तक arent रहा। तीन बजे बोला- पण्डितजी, उठिये आपको यहाँ गाड़ी बदलनी है ।
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हम लोग धनकी चिन्तामे रात दिन व्यग्र होरहे हैं पर व्यय होनेमे क्या धरा ? धन रखते हो तो उसकी रक्षा के लिये तैयार रहो। लोग कहते है कि दूसरे लोग भीतर ही भीतर पहले से तैयारी करते रहे । अरे तुम्हारे दादाको किसने रोक दिया था ? जैन धर्म यह कब बतलाता है कि तुम नपुंसक बनकर रहा। लोग कहते है कि जैनधर्मने भारतको गारत कर दिया। रं | जैनधर्मन भारतको गारत नही कर दिया । जबसे लोगोंने जैनधर्म छोडा तबसे गारत हो गये। जैनधर्म तो प्राणीमात्रका उपकार चाहता है वह किसीका भी नहीं सोचता । वहाँ तो यही उपदेश है 'सर्वे सन्तु निरामया" सत्र निरामय नीरोग रहें। 'म सर्वप्रजाना' मार्ग प्रजाका कल्याण हो। जैन"तीर्थंकरोंने छह खडकी पृथिवीका राज्य किया, मां क्या कायर बनकर किया ? नपसक बनकर किया ? नही, जैनके समान तो कोई वीर हो नही सकता । उसे कोई घानीमे पेल दे तो भी अपने आत्मासे च्युत नही होता। जिन तो एक आत्मा विशेष का नाम है । जिसने रागादि शत्रुओंको जीन लिया वह जिन है । उसने जिस धर्मका उपदेश दिया वह जैनधर्म है । इसे कायरोका धर्म कौन कह सकता है ?
त्यागका वास्तविक रूप
आज त्याग धर्म है। मै धनके त्यागका उपदेश नहीं देता । और मेरी समझमे जो धनके त्यागका उपदेश देता है वह वक्ता बेवकूफ है। धन तुम्हारा है ही कहाँ ? वह तो स्पष्ट जुदा पदार्थ है । यह चादर जो मेरे शरीरपर है न मेरी है न मेरे बापकी है और
मेरी मत पेरीकी है। वह द्रव्य दुसरा है और मैं द्रव्य दूसरा । एक द्रव्यका चतुष्टय जुदा, दूसरे द्रव्यका चतुष्टय जुदा । आप पदार्थको जानते हैं। क्या पदार्थ आपमे आ जाता है ? आप पेडा खाते है, मीठा लगता है क्या मीठा रस आपके श्रात्मामे घुस जाता है ? और बड़ी सफाई के साथ रोटी बनाती है क्या उसके हाथ या उसकी अङ्गलियाँ रोटीरूप होजाती हैं ?
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कुम्हार मिट्टीका घड़ा बनाता है क्या उसके हाथ-पैर आदि घड़ारूप होजाते है ? नहीं, एक द्रव्यका दूसरे द्रव्यमे प्रवेश त्रिकालमे भी नही हो सकता। जब दूसरा क्रय हमारा है ही नहीं तब उसका त्याग करना कैसा ? यहाँ त्यागसे अर्थ है पर पदार्थोंम आत्मबुद्धिका छोड़ना । धनका जोड़ना बुरा नही । आपके पास जितना धन है उससे चौगुना अपनी तिजोरियोंमे भरलो पर उसमें जो श्रात्मबुद्धि है उसे छोड़ दी। जब तक हम किसीको अपना समझते रहेंगे तब तक उसके सुग्ब-दुबके कारणांस हम सुखीदुःखी होते रहेंगे। यह नरेन्द्र बैठा है इसे यदि हम अपना मानेगे तो इसपर आपत्ति श्रनेपर हम स्वय दुबी हो उठेगे। इसीलिये तो आचार्य कहते है कि आत्मानिरिक्ति किसी भी पदार्थको अपना नही समझो | जिस समय आत्मा ही आत्मबुद्धि रह जायगी उसी समय आप सुखी हो सकेंगे, यह निश्रय है 1
जैनधर्मका उपदेश मोह घटानेके लिये ही है। आपके त्याग किसी पदार्थका त्याग नही हो सकता त्याग करके आप उस पदार्थकी सत्ता दुनियास मिटा दिन समर्थ नहीं है। आप क्या कोई भी समर्थ नही है । उसमें केवल मोह ही छोड़ा जा सकता है। जब तक अपने हृदयमे मोह रहता है तब तक ही इस परिग्रहकी चिन्ता रहती है। मोह निकल जानेपर कोई भी इसे लेजाश्री, इसका कुछ भी होता रहे, इसका विकल्प रखमात्र भी नहीं होता । कल आपने वज्रदन्त चक्रवर्तीका कथानक सुना था। जब उसका माह दूर हुआ तब उसके मनमे यह विकल्प नहीं आया कि हमारे इस विशाल राज्यको कौन संभालेगा ? लडकोंको राज्य देना चाहा, पर जब उन्होंने लेने डकार कर दिया तब अनुन्धरी के छह माह पुडरीकको राज्य देकर जङ्गलमें चला गया। निर्मोह दशाका कितना अच्छा उदाहरण है । चक्रवर्तीक दीक्षा लेनेक बाद उनकी स्त्री लक्ष्मीमती अपने जमाई वजघको जो कि भगवान आदिनाथ के जीव थे, पत्र लिखनी है कि 'पति और पुत्र सभी साधु हागये है। जिसपर