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________________ अनेकान्त [वषे ९ १) ले लेते और उसके बदले वायना (मिठाई) आदिके ठाटबाट के साथ जारहा था। मेरा ध्यान तो उम ओर रूपमे उसे दसौ रुपयेका सामान दे देते थे। मह- नहीं गया, पर उसने मुझे देख लिया और हाथी धर्मियोंसे वात्सल्य रखने वाले ऐसे पुरुष पहले होते म्बड़ाकर मुझसे बोला ? मुझे पहचानते हो मैने कहा थे। पर भाजके मनुष्य तो चाहते है हमारा घर ही श्ररे परसादी । उसने अपना किस्मा सुनाते हुए कहा, धनसे भर जावे और दूसरे दाने-दानेके लिये फिरे। कि तुम तो कहते थे कि अब क्या करोगे ? मैं अब इन विचारोंके रहते हुए भी क्या आप अपनेको जैनी मालवाका महन्त हैं। दम-पाँच लाखकी जायदाद है। कहते हो? मो भैया ! जिसको सम्पत्ति मिलनी होती है सो धन इच्छा करनेसे नहीं मिलता। यदि भाग्य अनायाम मिल जाती है । व्यर्थकी चिन्तामे रात दिन होता है तो न जाने कहाँसे मम्पत्ति श्रा टपकती है पड़े रहना अच्छा नहीं। मै मडावर्गका हूँ । मेरा एक माथी था-परमादी। जब बाईजीको मग्नके १० दिन रह गये तब परमादी ब्राह्मणका लडका था। हम दोनों एक माथ लम्पूने उनसे कहा, बाईजी ! कुछ चिन्ता तो नहीं है। चौथी क्लाममे पढ़ते थे । परसादीकं बापको ८) उन्होंने कहा, नहीं है । लम्पून कहा, छिपाती क्यों पंशन मिलती थी और १०००) एक हजार उमक हो ? वर्णीजीकी चिन्ता नहीं है । उन्होंने कहा, पहले पाम नकद थे। वह इतना अधिक कंजम था कि थी; अब नहीं है। पहले तो विकल्प था कि हमने इसे कभी परमादी एक आध पैसका अमरूद खाल तो पुत्रसे भी कही अधिक पाला, इसलिये मोह था कि वह उसे बुरी तरह पीटता था । बापके बर्तावसे यदि यह दो-चार हजार रुपये किमी तरह बचा लेता लड़का बड़ा दुग्बी रहता था। अचानक उसका बाप तो इसके काम आते । पर मैंने इमकं कार्यासे देखा मर गया। बापके मरने के बाद लड़केने खूब खाना कि यह एक भी पैसा नहीं बचा सकता । मैंने यह पीना शुरू कर दिया। बापकी जायदादको मिटाने मोचकर मतोषकर लिया है कि लड़का भाग्यवान है। लगा। मैंने उसे समझाया---परसादी। अनाप-शनाप जिस प्रकार मैं इसे मिल गई ऐमा ही कोई उल्लू म्वच क्यों करता है ? पीछे दुःखी होगा। वह बोला, और मिल जायेगा। बड़े भाग्यसे बाप मरा तो भी न खाव-पीवे । भैया में एक बार अहमदाबाद कांग्रेसको गया। 40 उसने एक सालमे ही एक हजार मिटा दिये। मैन मुन्नालालजी, राजधग्लाल वरया तथा एक दो सज्जन कहा, परमादी अब क्या करोगे? वह बोला, भाग्यमे और भी साथ थे। अहमदाबाद में एक मारवाड़ीने होगा तो और भी मिलेगा। मेरे भाग्यमे कोई महन्त नेवता किया। पूरी, खीर श्रादि सब सामान उसने मरेगा उसकी जायदाद मै भोगगा। ऐसा ही हुआ। बनवाया। मुझे ज्वर प्राता था, इसलिये पहले तो वह वहाँसे मालवा चला गया। देखनेम सुन्दर था मैन खीर नहीं ली । पर जब दूसगको खाते देखा ही, किसी महन्तकी सेवा खुशामद करने लगा। और उसकी सुगन्धि फैली तो मैंन भी ले ली और महन्त प्रसन्न होगया और जब मरने लगा तब लिख वृब खाली। एक घण्टे बाद मुझे ज्वर आगया । गया कि मेरा उत्तराधिकारी परमादी होवे। क्या इच्छा थी कि इतनी दूर तक आया नी गिरनार जीके था। अब वह लग्बपति बन गया। हाथी, घोडे आदि दर्शन और कर पाऊँ । शामको गाड़ी मवार हुआ। महन्तोंका क्या वैभव होता है मो श्राप लोग जानते मेरे पैरोंमे खूब दर्द हो रहा था। पर मकोच था, ही है। मै इलाहाबादमे पण्डित ठाकुरदासजोके पाम इसलिये किसीसे यह कहते न बना कि कुछ दवा दो। पढ़ता था । वह भी एक वक्त गङ्गास्नानके लिये गतको एक पूनाका वकील हमारे पाम आया । कुछ इलाहाबाद गया। मैं पुस्तक लेकर पण्डितजीकं पाम देर ती चर्चा करता रहा पर बादमे मेरे मो जानेपर पढ़ने जारहा था, वह भी एक हाथीपर बैठा बड़े वह वहीं बैठा रहा। न जाने उसके मनम क्या भाया ।
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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