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________________ ३६ ] अनेकान्त । वर्षे इन असंदिग्ध उल्लेखोंसे 'प्रमाणसंग्रहभाष्य' कहना था कि अकलङ्कदेवने तत्त्वार्थवार्तिकमें षट्खअथवा 'प्रमाणसंग्रहालंकार' की अस्तित्वविपयका एडागमका उपयोग किया ही नहीं। क्या उनका यह विद्वद्-अनुश्रुतिको जहां पोपण मिलता है वहां उसकी कहना ठीक है ? यदि है तब आपने तत्त्वार्थवार्तिकमें महत्ता. अपूर्वता और वृहत्ता भी प्रकट होती है। ऐसा षट्खण्डागमके सूत्रोंका अनुवाद कैसे बतलाया ? अपूर्वग्रन्थ मालूम नहीं इस समय मौजूद है अथवा ४ समाधान-हम आपको ऐसे अनेक प्रमाण हागया ह ? यदि नष्ट नहीं हुआ और किसा नीचे देते हैं जिनसे आप और वे विद्वान यह माननेको लायरीमें मौजूद है तो उसका अनुसंधान होना बाध्य होंगे कि अकलङ्कदेवने तत्त्वार्थवातिकमें षट्चाहिये। कितने खेदकी बात है कि हमारी लापरवाही खण्डागमका खूब उपयोग किया है, यथासे हमारे विशाल साहित्योद्यानमेंसे ऐसे ऐसे सुन्दर (१) 'एवं हि समयोऽवस्थित: सत्प्ररूपणायां और सुगन्धित ग्रन्थ-प्रसून हमारी नज़रोंसे अोझल हो गये। यदि हम मालियोंने अपने इस विशाल कायानुवादे-"घसा द्वीन्द्रियादारभ्य आ अयोगकेवबागकी जागरूक होकर रक्षा की होती तो वह आज लिन इति"' -तत्त्वा० पृ०५८ कितना हरा-भरा दिखता और लोग उसे देख देखकर यह पटवण्डागमके निम्न सूत्रका संस्कृतानुवाद हैजैन-साहित्यपर कितने मुग्ध और प्रसन्न होते। हा "तसकाइया बोइदिय-प्पहडि जाव अजोगिकेविद्वानोंको ऐसे ग्रन्थोंका पता लगानेका पूरा उद्योग वाल र वलि ति। -पदख० १-१-४४ करना चाहिये। (२) 'पागमे हि जीवस्थानादिसदादिष्वनुयोग३ शंका-गोम्मटसार जीवकाण्ड और धवला द्वारेणादेशवचने नारकाणामेवादौ सदादिप्ररूपणा -तत्त्वा० पृ०५५ में जो नित्यनिगोद और इसर निगोदके लक्षण पाये इसमें सत्प्ररूपणाके २५ वें सूत्रकी ओर स्पष्ट जाते हैं क्या उनसे भी प्राचीन उनके लक्षण मिलते संकेत है। ___ (३) 'एवं हि उक्तमा वर्गणायां बन्धविधाने ३ समाधान-हां, मिलते है । तत्त्वार्थवार्तिकमें में नोआगमद्रव्यबन्धविकल्पे सादिवैनसिकबन्धनिर्देशः अकलङ्कदेवने उनके निम्न प्रकार लक्षण दिये हैं- प्रोक्तः विषमरूततायांच बन्ध: समस्निग्धतायां सम 'त्रिष्यपि कालेषुत्रसभावयोग्या ये न भवन्ति रूततायां च भेदः इति तदनुसारेण सूत्रमुक्तम' ते नित्यनिगोताः, सभावमवाप्ता अवाप्स्यन्ति -तत्त्वा०पृ०२४२ यहां पांचवें वर्गणा खण्डका स्पष्ट उल्लेख है। च ये तेऽनित्यनिगोताः। --त०वा० पृ० १०० (४) 'स्यादेतदेवमागमः प्रवृत्तः। पंचेन्द्रिया ____ अर्थात् जो तीनों कालोंमें भी प्रसभावके योग्य असंज्ञिपंचेन्द्रियादारभ्य आ अयोगकेवलिन:' पृ० ६३ नहीं हैं वे नित्यनिगोत हैं और जो सभाधको प्राप्त यह पटखण्डागमके इस सूत्रका अक्षरश: संस्कृहुए हैं तथा प्राप्त होंगे ये अनित्यनिगोत हैं। तानुवाद हैशंका-'संजद' पदको चर्चा के समय आपने "पंचिदिया असएिणपंचिदिय-प्पहडि जाव 'संजद पदके सम्बन्धमें अकलदेवका महत्वपूर्ण अजोगिकेवल ति" -१-१-३७ । अभिमत' लेखमें यह बतलाया था कि अकलङ्कदेवने इन प्रमाणोंसे असंदिग्ध है कि अकलङ्कदेवने तत्त्वाथैवार्तिकके इस प्रकरण में पट्खण्डागमके सूत्रोंका तत्त्वार्थवात्तिकमें पटवण्डागगका अनुवादादिरूपसे प्रायः अनुवाद दिया है। इसपर कुछ विद्वानोका उपयोग किया है। कृता।
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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