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________________ किरण १] समयसार की महानता ३५ १ शंका-कहा जाता है कि विद्यानन्द स्वामीने सं० १४५४ को लिखी अर्थात् साढ़े पांचसौ वर्षे "विद्य नन्दमहोदय' नामका एक बहुत बड़ा ग्रन्थ लिखा पुरानी अधिक शुद्ध अष्टसहस्रीको प्रति प्राप्त हुई है, जिसके. उल्लेख उन्होंने स्वयं अपने श्लोकवात्तिक, है, जो मुद्रित अष्टसहस्रीमें सैकड़ों सूक्ष्म तथा स्थूल अष्टसहस्री आदि ग्रन्थों में किये हैं। परन्तु उनके बाद अशुद्धियों और त्रुटित पाठोंको प्रर्शित करती है। यह होनेवाले माणिक्यनन्दि, वादिराज, प्रभाचन्द्र आदि भी प्राचीन प्रतियोंकी सुरक्षाका एक अच्छा उदाहरण बड़े बड़े प्राचार्यों में से किसीने भी अपने प्रन्थों में है। इससे 'विद्यानन्दमहोदय' के भी श्वेताम्बर शास्त्र उसका उल्लेख नहीं किया, इससे क्या वह विद्यानन्दके भंडारेमें मिलनेकी अधिक आशा है. अन्वेषकोंको जीवनकाल तक ही रहा है-उसके बाद नष्ट होगया? उसकी खोजका प्रयत्न करते रहना चाहिये। १समाधान-नहीं, विद्यानन्दके जीवन-कालके २ शंका-विद्वानोंसे सुना जाता है। कि बड़े बाद भी उसका अस्तित्व मिलता है। विक्रमकी बारहवीं अनन्तवीर्य अर्थात् सिद्धिविनिश्चयटीकाकारने अकतेरहवीं शताब्दीके प्रसिद्ध विद्वान वादी देवसूरिने लंकदेवके 'प्रमाणसंग्रह' पर 'प्रमाणसंग्रहभाष्य' या अपने 'स्याद्वादरत्नाकर' (द्वि० भा० पृ०,३४६ ) में 'प्रमाणसंग्रहालंकार' नामका वृहद् टीका-प्रन्थ लिखा 'विद्यानन्दमहोदय' प्रथकी एक पंक्ति उद्धृत करके है परन्तु आज वह उपलब्ध नहीं होरहा। क्या उसके नामोल्लेखपूर्वक उसका समालोचन किया है। यथा अस्तित्व प्रतिपादक कोई उल्लेख हैं जिनसे विद्वानोंकी उक्त अनुश्र तिको पोषण मिले ? 'यत्तु विद्यानन्द महोदये च "कालान्तरावि. स्मरणकारणं हि धारणाभिधानं ज्ञानं संस्कारः प्रती २ समाधान-हां, प्रमाणसंग्रहभाष्य अथवा त वदन संस्कारधारणयोरैकायमचकथत्। प्रमाणसंग्रहालकारके उल्लेख मिलते हैं। स्वयं सिद्धि विनिश्चयटोकाकारने सिद्धिविनिश्चयटीकामें उसके ___इससे स्पष्ट जाना जाता है कि 'विद्यानन्दमहोदय' भनेक जगह उल्लेख किये हैं और उसमें विशेष विद्यानन्द स्वामीके जीवनकालसे तीनसौ चारसौ वर्ष जानने तथा कथन करनेकी सूचनाएँ की हैं। यथाबाद तक भी विद्वानोंकी ज्ञानचर्चा और अध्ययनका विषय रहा है। आश्चर्य नहीं कि उसको सैकडोंकापियां (१) 'इति चर्चित प्रमाणसंग्रहभाष्ये' -*सिक न हो पानेसे वह सब विद्वानोंको शायद प्राप्त नहीं हो वि० टी० लि० ५० १२ । सका अथवा प्राप्त भी रहा हो तो अष्टसहस्री आदिको (२) 'इत्युक्त प्रमाणसंग्रहालंकारे'-सि० लि०प०१६। तरह वादिराज आदिने अपने ग्रंथों में उसके उद्धरण (३) 'शेषमत्र प्रमाणसंग्रहमाष्यात्प्रत्येयम' -सि०प० प्रहण न किये हों । जो हो, पर उक्त प्रमाणसे निश्चित ३६२। है कि वह बननेके कईसौ वर्ष बाद तक विद्यमान रहा (४) 'प्रपंचस्तु नेहोक्तो प्रथगौरवात् प्रमाणसंग्रहहै। संभव है वह अबभी किसी लायब्रेरी या सरस्वती भाष्याज्ञयः'-सिलि०प०६२१ भंडार में दीमकोंका भक्ष्य बना पड़ा हो। अन्वेषण (1) 'प्रमाणसंग्रहभाष्ये निरस्तम्'-सि० लि. प० करमेपर अकलंक देवके प्रमाणसंग्रह तथा अनन्तवीर्य की सिद्धिविनिश्चयटीकाकी तरह किसी श्वेताम्बर (६) 'दोषो रागादिाख्यातः प्रमाणसंग्रहभाष्ये'शास्त्र भंडार में मिल जाय; क्योंकि उनके यहां शास्त्रों सि० लि० ५० १२२२ । की सुरक्षा और सुव्यवस्था यति-मुनियोंके हाथोंमें - --- रही है और अबभी कितने ही स्थानों पर चलती है * वीर सेवा मन्दिरमे जो सिद्धिविनिश्चय टीकाकी हालमें हमें मुनि पुण्यविजयजीके अनुग्रहसे वि० लिन्वित प्रति मौजद है उसके पत्रों की संख्या डालीगई है। ११०३
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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