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________________ महामुनि सुकुमाल ( श्री ला० जिनेश्वरप्रसाद जैन ) →→→→→→← [ इस लेख के लेखक ला ० जिनेश्वरप्रमादजी सहारनपुरके उन धार्मिक पुरुषमिसे एक हैं जिनसे सहारनपुरका मस्तक ऊँचा है । आप ज्ञानवानों और चारित्रवानोंका बड़ा आदर किया करते हैं। लाला उदयराम जिनेश्वरप्रसाद के नामसे प्रसिद्ध कपड़ेकी फर्मके आप मालिक हैं। अपने व्यापारसे उदासीनजैसी वृत्ति रखते हुए आप सदा ही धर्मकी और यथेष्ट ध्यान रखते है। जैनगुरुकुल सहारनपुरके श्राप जन्मदाता और अधिष्ठाता है तथा उसे हजारों रुपये प्रदान कर चुके हैं। हाल मे श्राप सकुटुम्ब पृज्य क्षुल्लक वर्णीजी के दर्शन, वन्दन और उपदेशश्रवण के लिये वरुश्रामागर गये थे । वहॉपर वर्गीजीको आहार दान देनेका भी आपको सकुटुम्ब सौभाग्य प्राप्त हुआ था | उधरसे वापिस आकर अपने विचारपूर्वक दर्शनप्रतिमा ग्रहण की है । हालमे मेरी आपसे भेंट हुई । आपके विचारों, उन्नत धार्मिक भावों बार शान्त परिणतिको जानकर बडा प्रमोदभाव हुआ। महामुनि सुकुमाल के जीवनचरितपरमे आपने जो विचार बनाये उन्हें लेग्नबद्धरूपमें मुझे सुनाया । सुनकर मेरी तबियत बडी प्रसन्न हुई । मेरी प्रेरणापर उसे उन्होंने 'अनेकान्त' में प्रकट करनेके लिये भेजा है । श्राप यद्यपि लेखक नहीं है-सफल व्यापारी धनपान है - फिर भी अपने प्रथम प्रयत्नमं वे इतना सुन्दर लिख सके, यह जानकर पाठक मी प्रसन्न होंगे । आशा है अब आप अपने लिखनेका प्रयत्न बराबर जारी रखेंगे। - कोटिया ] ज बैठे बैठे विचार उत्पन्न हुआ कि वे प्रभु माज कुमाल स्वामी कौन थे ? उनकी पूर्वली अवस्था कैसी थी, जिन्होंने इतनी वीरताके साथ कर्मशृङ्खलाकी 'डयोको काटा था ? पूर्व अवस्थामे वे कर्मकं प्रेरं पापोदयवश एक महादुगन्धा अस्पृश्य कन्याकं शरीरमे बन्द इस समार अटवीमे ही थे, जिसके शरीर में इतनी दुर्गन्ध रही थी कि उसको देखकर बहु-मनुष्यों का समुदाय नाकपर वस्त्र रखकर ही उस मागसे निकलता था । उसी समय महान त्यागमूर्ति, ज्ञानस्वरूप, अनेक प्रतिमाधारी, महान तपस्वी एक ऋषि महाराज उसके समीपसे विहार करते हुए निकले, अचानक उनकी दृष्टि उस कन्यापर गई । उन्होंने विचार कियाअरे यह तो कदममे लिपटा हुआ रत्न यहाँ है पड़ा और यह तो निकटभव्य आत्मा है। कर्मोंके चक्कर मे फँसी हुई है। उन्होंने शीघ्र ही स्वदृष्टि उस ओर 1 घुमाई और बोले—हे बालिके ' तू कौन है ? विचार ता सही? पूर्वी दशा तेरी कौन थी ? किस पापीदयसे तृ इस अवस्थामे अवतरित हुई ? विचार और सोच | तेरा कल्याण निकट है, तेरी अवस्था इस महान नारकीय दुःखसे छूटने वाली है, तनिक स्थिरतासे विचार और उपयोग लगा ।" इतना वचन उन महान वल्याणकारी धीर-वीर, ज्ञानी, ऋषीश्वरका सुनकर वह विचारती है ये कौन है ? इनकी वाणी परम-सुहावनी मालूम पड़ती है । मुझ दीन-हीनपर क्यों करुणा करते है ? मेरे तो समीप भी कोई नहीं आता । धन्य, इन वात्सल्यधारी महान् प्रभुको । इतना विचारते-विचारते उसे उसी क्षरण पूर्वभवका जाति-स्मरण ज्ञान होता है और वर्तमान दशापर वेद होते-होते युगल नेत्रो मे अश्रु धार बह जाती है और वह लालायित दृष्टिसे निर्निमेष उनकी ओर देखती रहती है। वे महामुनि उसे सम्बोधते हुए शीघ्र कहते है
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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