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अनेकान्त
[ वर्ष ९
भी सुपात्र-दान देकर जन्म सुफल करनेका अबसर कभी सुननेको मिलता, किन्तु रोजाना मस्जिदमें, मिलेगा?
सभा - सोसायटियोंमे और व्यावहारिक जीवनमे न जाने हमारी इस निस्पृहताको किस बदनज़र मजहबी दीवानों और तास्सुबी लोगोंके जबानके की नजर लगी है कि एक-एक करके सब छीजते चटखारे रोज़ सुननेको मिलते । जारहे हैं। जो बचे है वे भी हमारी नालायकियोंसे इधर काँग्रेसी-व्याख्यान भूले भटके किसीने तङ्ग आकर चलते बने, कुछ भरोसा नहीं, वे तो अब सुना भी तो अभी वह पूरी तरह उसको समझ भी हमारे लिये वन्दनीय और दर्शनीय हैं, जितने दिन भी नहीं पाया है कि मुहल्लेम होने वाले रोजाना लीगी उनका साया बना रहे हमारा सौभाग्य है। लेक्चरोंने सब गुड़ गोबर कर दिया । उसपर यह
पर, जो कहते है- "ज्योतिसे ज्योति जलती आये दिन हलाल और झटका, गौ और सुअर, आई है, वह कभी बुझती नहीं।" उनसे हम पूछते अजॉन और बाजा, ताजिये और सड़क पेड़, हिन्दी है कि हमारी इम दीपमालाको क्या हश्रा ? जो दीप और उर्दू के झगड़े नित नया गुल खिलाते रहे। बुझा उससे नवीन क्यों नहीं जलता ! यह पंक्तिकी कांग्रेसी इत्तहाद और अहिसाका बराबर उपदेश देते पक्ति क्यों प्रकाशहीन होती जारही है ? ___ रहे, परन्तु यह आये दिन झगड़े क्यों होते है, न
हमारी इस आकुलताका क्या कोई अनुभवी इसका कभी हल निकाला न कोई उपाय सोचा न सज्जन निराकुल उपाय बतानेकी दया करेगे ? उन उपद्रवी स्थलोंपर पहुँचकर सही परिस्थितिका जैन-एकता
निरीक्षण किया । जब घर फुक जाते, बहन-बेटी जैन-एकताका नारा नया नहीं, बहुत पुराना है। बई
बेइज्जत होजाती, सर्वस्व लुट जाता और प्रतिष्ठित परन्तु जिस प्रकार हिन्दु-मुस्लिम राज्यका नारा
व्यक्ति पिट जाते तब उन्हीको यह कहकर कि "आपस जितनी-जितनी ऊँची आवाज और तेजीसे बुलन्द
मे लड़ना ठीक नहीं", लानत मलामत देते। लुटेरे किया, उतनी ही शीघ्रता और परिमाणमे अविश्वास और शोहदे खिलखिलाते और ये काँप्रेमकी भेंडे
और श्राशङ्काकी खाई चौड़ी होती चली गई। उसी गदन झुकाकर रह जाती। तरह जैन समाजके तीनों सम्प्रदायक सङ्गठनका कि ये भेड़े काँग्रेसका मरते दम तक साथ वृक्षारोपण जितनी बार किया गया है, घातक फल ही निभानकी प्रतिज्ञा कर बैठी थी, इसलिये मार खाकर देता रहा है। तीनों सम्प्रदाय एक होने तो दर, एक भी मिमयाती तो नहीं थी, पर पिटना क्यों ठीक है, एक सम्प्रदायमे भनेक शाखाएँ उपशाखाएँ बढ़ती यह उनकी समझमे नहीं आ पाता था और वह भेड़ियों जारही हैं।
संमेल-मिलाप करते हुए ङ्कित ही रहती थीं । यदि हिन्दु-मुस्लिम इत्तहादमे जो काँग्रेस सदैव भल उन भेड़ियोंको भी काँग्रेसने भेड़ बनाया होता तो करती रही है, उसीका अन्ध-अनुकरण हमारे यहाँ बिना प्रयासके ही इत्तहाद होगया होता। होता रहा है। काँग्रेसने इत्तहादका नारा तो बुलन्द काँग्रेसने कभी मुसलमानोंक सामाजिक और किया पर अपनेसे भिन्न सम्प्रदायक हृदयमे घर नहीं धार्मिक जीवनमे आनेका प्रयत्न नहीं किया । परिणाम बनाया। काँग्रेसी मञ्चसे व्याख्यान देते रहे, अपील इसका यह हुआ कि हर मुसलमान काँग्रेसी नेताको निकालते रहे । परन्तु उनके साम्प्रदायिक गढ़ोंमे न केवल हिन्दु समझता रहा । अपनी कौमका नेता वह कभी गये, न उनकी रीति-रिवाजका अध्ययन किया, उन्हींको समझता रहा जो उनकी रोजाना जिन्दगीमे न इत्तहादके मार्गकी कठिनाइयोंको समझा, न उनका दिलचस्पी लेते रहे। और दुर्भाग्यसे काँग्रेसने भी हल हुधा । परिणाम इसका यह निकला कि मुस्लिम उन्हीं मजहबी दीवानोंको उनका नेता तस्लीम कर जनताको काँग्रेसी नेताका व्याख्यान तो शासोनादिर लिया जो मुसलमानोंको रोजाना काँग्रेस के विरुद्ध