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________________ किरण ४] रत्नकरण्डके कतृ त्व-विषयमे मेग विचार और निर्णय १३७ पदाकी रचनाका अटपटापन या अम्वाभाविकपन प्रयोग किया गया है । इनमे 'वीतकलङ्क' शब्द सबसे एकमात्र 'वीनकलङ्क' शब्दकं साथ केन्द्रित जान अधिक शुद्ध भी अधिक स्पष्टार्थको लिये हुए है पहना है, उसे ही मीधे वाच्य-वाचक-मम्बन्धका और वह अन्तम स्थित हुश्रा अन्तदीपककी तरह पाधक न मममकर आपने उदाहरण प्रस्तुत किया पूवमे प्रयुक्त हुए 'मन्' आदि सभी शब्दोंकी अर्थदृष्टिहै । परन्तु सम्यक् शनके लिये अथवा उमके स्थान पर प्रकाश डालता है, जिसकी जरूरत थी, क्योकि पर 'वातकलङ्क' शब्द का प्रयोग छन्द तथा म्पष्टाथ की 'मत्' मम्यक् जैसे शब्द प्रशमादिके भी वाचक है दृष्टिसे कुछ भी अटपटा, अमङ्गत या अम्वाभाविक वह प्रशमादि किम चीजम है? दोषोंक दूर होनेमे नहीं है; क्योकि 'कलङ्क'का सुप्रसिद्ध अर्थ 'दोष' है' है। उसे भी 'वीतकल' शब्द व्यक्त कर रहा है। और उमक माथमे 'वीत' विशेषावगन, मुक्त त्यक्त, दशनमे दोष शङ्का-मृढतादिक, ज्ञानम मशय-विपर्यविनष्ट अथवा रहित जैसे अर्थका वाचक है, जिमका यादिक और चारित्रम गग-द्वपादि होते है। इन दोषांस प्रयोग समन्तभद्रक दमरे ग्रन्थोंमे भी ऐसे स्थलोंपर रहित जो दर्शन-ज्ञान और चारित्र है वे ही बीतकला पाया जाता है जहां श्लेपार्थका कोई काम नहीं; जैसे अथवा निदाप दर्शन-ज्ञान-चारित्र है, उन्ही रूप जो प्राप्तमीमामा 'वानरागः' तथा 'वीतमोहतः' पदोमें, अपने आत्माको परिणत करता है उसे ही लोकम्वयम्भूनांत्रके 'वानघन:' तथा 'वीतगगे' पदोम, पग्लोक मर्व अर्थोकी मिद्धि प्राप्त होती है। यही उक्त युक्त्यनुशासनके 'वीविकल्पधी:' और जिनशतककं उपान्त्य पद्यका फलिनार्थ है, और इससे यह स्पष्ट 'वीनचंताविकागभि' पदमे । जिसमें दोष या जाना जाना है कि पद्यमे 'सम्यक'के स्थानपर 'वीनकलङ्ग निकल गया अथवा जो उससे मुक्त है उसे कलङ्क'शब्दका प्रयोग बहुन मोच-ममझकर गहरीदुरवीतदाप, निर्दाप, निष्कलङ्क, अकलङ्क तथा वातकलङ्क दृष्टिकं माथ किया गया है । छन्दकी टिम भी वहाँ जैम नामोम अभिहित किया जाता है, जो मब एक सन, मम्यक, ममीचीन, शुद्ध या ममम जेम ही अर्थक वाचक पर्याय नाम है। वास्तवम जो शमिम किमीका प्रयोग नहीं बनता और इसलिये निदाप है वही मम्यक् (यथार्थ) कह जानकं योग्य वीनकलङ्क' शब्दका प्रयोग श्रेपार्थकं लिय अथवा है-दापास युक्त अथवा पृणको मम्यक नहीं कह द्राविडी प्राणायामक रूपम नहीं है जैमा कि प्रोफमर मकने । रत्नकरण्डम मन, सम्यक, ममीचीन, शुद्ध माहब ममझते है । यह बिना किमी श्वेपार्थकी और वीनकलङ्क इन पांचों शब्दांका एक ही अर्थम कल्पनाकं प्रन्थमन्दभक माथ मुसम्बद्ध और अपने प्रयुक्त किया है और वह है यथार्थना-निर्दापना, स्थानपर सुप्रयुक्त है। जिमकं लिय स्वम्भूनांत्रम 'ममञ्जम' शब्दका भी अब मै इतना और भी बनला देना चाहता हूं कि ग्रन्थका अन्न परीक्षण करनेपर उमग कितनी ही बात निजभक्तया' नामका पा उद्धृत किया है उमम विद्या एमी पाई जाती है जो उमकी अति प्राचीनताकी द्योतक नन्दका 'विद्या' नाममे उल्लेग्न न करके पूग ही नाम है, उमक कितने ही उपदेशा-पाचागं, विधि-विधानां दिया है। विद्यानन्दका 'विद्या' नाममे उल्लेग्वका दूमग अथवा क्रियाकाण्डॉकी तो परम्पग भी टीकाकार कोई भी उदाहरण देखनेम नहीं आता । प्रभाचन्द्रकं ममयम लुम हुई मी जान पड़ती है, १ 'कलवाऽई कालायममले दोपापवादयोः। विश्व० काश. इमाम वे उनपर यथेष्ट प्रकाश नहीं डाल मक और दोषक अर्थम कलङ्क शब्दके प्रयोगका एक मुम्पष्ट उदा- न बादको ही किसीके द्वारा वह डाला जा सका है। हरण इस प्रकार है जैसे 'मृर्ध्वमह-मुष्टि-वामी-बन्ध' और 'चतुगवतअपाकुवन्ति यद्वाचः काय-वाक् चित्त मम्भवम । त्रितय' नामक पदोंमें वर्णित प्राचारकी बात । अष्टकलहमगिना सोऽय देवनन्दी नमस्यते ||---शानार्णव मूलगुग्गोंमें पञ्च अरणवतोंका समावेश भी प्राचीन
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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