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अनेकान्त
[वर्ष ९
परम्पराका द्योतक है जिममे समन्तभद्रस शताब्दियों इमपरसे यह स्पष्ट जाना जाता है कि रत्नकरण्ड बाद भारी परिवर्तन हा और उसके अणुव्रतोंका ग्रन्थकी रचना उस समय हुई है जबकि 'पाखण्डी' स्थान पञ्चउदम्बरफलोंने ले लिया । एक चाण्डाल- शब्द अपने मूल अर्थम-'पापं खण्डयनीति पाखण्डा' पुत्रको 'देव' अर्थात् आराध्य बतलाने और एक इस नियुक्तिके अनुसार-पापका खण्डन करनेके गृहस्थको मुनिमे भी श्रेष्ठ बतलाने जैसे उदार उपदेश लिये प्रवृत्त हुए तपस्वी माधुओंके लिये आमतौरपर भी बहुत प्राचीनकालक मंसूचक है जबकि देश और व्यवहृत होता था, चाहं वे साधु स्वमतके हो या समाजका वातावरण काफी उदार और सत्यको परमतके । चुनांचे मूलाचार (अ. ५)मे 'रत्तवडप्रहण करनेमे सक्षम था। परन्तु यहाँ उन सब चरग-तापस-परिहत्तादीयअगापामंडा' वाक्यके बातोंके विचार एव विवेचनका अवसर नही है
द्वारा रक्तपटादिक माधुओको अन्यमतके पाखण्डी तो स्वतन्त्र लेखक विषय है, अथवा अवसर मिलने
बतलाया है, जिससे माफ ध्वनित है कि तब स्वमत पर 'समीचीन-धर्मशास्त्र'की प्रस्तावनामे उनपर यथेष्ट
(जैनों)के तपस्वी माधु भो 'पाखण्डी' कहलाते थे। प्रकाश डाला जायगा । यहाँ मै उदाहरणके तौरपर और इसका समर्थन कुन्दकुन्दाचायके समयामार सिर्फ दो बाते ही निवेदन कर देना चाहता हूँ और प्रन्थकी पाखंडी-लिगाणि व गिहलिंगाणि व बे इस प्रकार है
बहुप्पयागपण' इत्यादि गाथा नं०४८ आदिसे भी (क) रत्नकरण्डमे सम्यग्दर्शनको तीन मूढताओंसे
होता है, जिनमे पाखण्डीलिङ्गको अनगार माधुओं रहित बतलाया है और उन मूढताओंम पावण्डि
(निर्ग्रन्थादि मुनियों)का लिङ्ग बतलाया है । परन्तु मृढताका भी समावेश करते हुए उसका जो स्वरूप
'पाखण्डी' शब्दक अर्थकी यह स्थिति आजसे कोई दिया है वह इस प्रकार है
दशों शताब्दियों पहलेम बदल चुकी है और सबमे यह सग्रन्थाऽऽरम्भ-हिमाना मंसाराऽऽवर्त-वर्तिनाम् ।।
'शब्द' प्रायः 'धून' अथवा 'दम्भी-कपटी' जैसे विकृत पास्वण्डिना पुरस्कारो ज्ञेय पाखण्डि-मोहनम् ।।२४।।
अर्थमे व्यवहत होता रहा है। इम अर्थका रत्न'जो सग्रन्थ है-धन-धान्यादि परिग्रहसे युक्त है -~-~-आरम्भ सहित है-कृषि-वाणिज्यादि सावद्यकर्म
करण्डके उक्त पद्यम प्रयुक्त हुए 'पाण्डिन्' शब्दक करते है-, हिमामे रत हैं और संसारके भावोंमे प्रवृत्त
साथ कोई सम्बन्ध नहीं है । यहाँ पाखण्डी' शब्दक
प्रयोगको यदि धूर्त, दम्भी, कपटी अथवा झूठे हो रह हैं-भवभ्रमणमे कारणीभूत विवाहादि को
(मिथ्यादृष्टि) साधु जैसे अर्थमे लिया जाय, जैसा कि द्वारा दुनियाके 'चकर अथवा गोरखधन्धेमें फंसे हुए
कुछ अनुवादकोंने भ्रमवश आधुनिक दृष्टिसे ले लिया हैं, ऐसे पाण्डियोंका-वस्तुत: पापके खण्डनमे प्रवृत्त न होने वाले लिङ्गी साधुओंका जो (पाखण्डीके
है, तो अर्थका अनर्थ हो जाय और 'पावण्डि
मोहनम्' पदमे पड़ा हुआ 'पाखण्डिन्' शब्द अनर्थक रूपमे अथवा साधु-गुरु-बुद्धिसे) आदर-सत्कार है
और असम्बद्ध ठहरे । क्योंकि इस पदका अर्थ है उसे 'पाण्डिमढ' समझना चाहिए।
'पाखण्डियोंके विषयमे मूढ होना' अर्थात पाखण्डीके १ इम विषयको विशेष जानने के लिये देखो लेखकका 'जैना
बास्तविक' स्वरूपको न समझकर अपाखण्डियों चायौंका शासन भेद' नामक ग्रन्थ पृष्ठ ७ से १५ । उसमे दिये हुए 'रत्नमाला' के प्रमाणपरसे यह भी जाना जाता
१ पाखण्डीका वास्तविक स्वरूप वही है जिसे ग्रन्थकार है कि रत्नमालाकी रचना उसके बाद हुई है जबकि मूल
महोदयने 'तपस्वी के निम्न लक्षणम समाविष्ट किया है। गुणाम अणुव्रतीक स्थानपर पञ्चोदम्बरकी कल्पना रूद
ऐसे ही तपस्वी साधु पापीका खण्डन करनेमें समर्थ होत है:होचुकी थी और इस लिये भी रत्नकरयडस शताब्दिया विषयाशा-वशाऽतीती निरागम्भोऽपरिग्रहः । बादकी रचना है।
ज्ञान ध्यान-तपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्थते ।।१०।।