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किरण ४]
रत्नकरण्डक कतृ त्व-विषयमे मेरा विचार और निर्णय
अथवा पास्वएट्याभासोंको पाखण्डी मान लेना और का स्वरूप बतलाते हुए, घरसे 'मुनिवन'को जाकर वैसा मानकर उनके साथ तदुरूप प्रादर-सत्कारका गुरुके निकट ब्रोंको ग्रहण करनेकी जो बात कही व्यवहार करना । इस पदका विन्यास प्रन्थमे पहलेसे गई है उससे यह स्पष्ट जाना जाता है कि यह प्रन्थ प्रयुक्त 'देवतामृढम् पदके समान ही है, जिमका उस समय बना है जबकि जैन मुनिजन आमतौरपर प्राशय है कि 'जो देवता नहीं हैं-रागद्वेषसं मलीन बनोंमे रहा करते थे, वनोंमे ही यत्याश्रम प्रतिष्ठित थेदेवताभाम हैं-उन्हें देवता समझना और वैसा और वहीं जाकर गुरु (आचार्य)के पास उत्कृष्ट ममझकर उनकी उपासना करना । ऐमी हालनमे श्रावकपदकी दीक्षा ली जाती थी। और यह स्थिति 'पाखण्डिन्' शब्दका अर्थ 'धूत' जैसा करनेपर उस समयकी है जबकि चैत्यवाम-मन्दिर-मठोंमे इम पदका ऐसा अर्थ होजाता है कि धृतोंके मुनियोका आमतौर निवास-प्रारम्भ नहीं हुआ था। विषयम मूढ होना अर्थात जो धूत नहीं है उन्हें चैत्यवास विक्रमकी ४थी-५वीं शताब्दीमे प्रतिष्ठित हो धृत ममझना और वैसा समझकर उनके साथ चुका था- यद्यपि उसका प्रारम्भ उससे भी कुछ
आदर-सत्कारका व्यवहार करना' और यह अर्थ पहले हुआ था ऐसा तद्विषयक इतिहाससे जाना किमी तरह भी मङ्गत नहीं कहा जा सकता। अतः जाता है। प. नाथूरामजी प्रेमीके 'वनवासी और रत्नकरण्डम पाखण्डिन शब्द अपने मूल पुरातन चैत्यवामी सम्प्रदाय' नामक निबन्धसे भी इस विषय. अर्थमे ही व्यवहान हुआ है, इमम जरा भी मन्देहके पर कितना ही प्रकाश पड़ता है। और इस लिये भी लिये स्थान नहीं है । इम अथकी विकृति विक्रम म० रत्नकरण्डकी रचना विद्यानन्द प्राचायके बादकी ७३४म पहले होचकी थी और वह धूत जैसे अर्थम नहीं हो सकती और न उम रत्नमालाकारके सम. व्यवहन हाने लगा था, इसका पता उक्त मवन मायिक अथवा उसके गुरुकी कृति हो सकती है जो अथवा वीरनिर्वाण मा १२०४म बनकर ममाप्त हा स्पष्ट शब्दोम जैन मुनियोक लिय बनवामका निषेध श्रीविषेणाचार्य कृत पद्मरिनके निम्न वाक्यसे कर रहा है-उसे उत्तम मुनियोंक द्वारा वर्जित चलता है - जिममें भग्न चक्रवर्तीक प्रति यह कहा बनला रहा है-और चैत्यवासका खुला पोषण कर गया है कि जिन ब्राह्मणों की मृष्टि प्रापन की है वे रहा है । वह नो उन्हीं म्वामी समन्तभद्रकी कृति वर्द्धमान जिनेन्द्रकं निर्वाणके बाद कलियगमे महा- हानी चाहिये जो प्रसिद्ध वनवामी थे, जिन्हें प्रोफमर उद्धत 'पाखण्डी' हो जायेगे । और अगले पद्यम माहबन श्वेताम्बर पट्रालियांक आधारपर 'बनउन्हे 'मदा पापक्रियोद्यताः' विशेषण भी दिया गया है- वामी' गच्छ अथवा महक प्रस्थापक 'मामन्तभद्र' बद्धमान-जिनम्याऽन्ते भविष्यन्ति कली यगे । लिखा है जिनका श्वेताम्बर-मान्य समय भी दिगम्बरएते ये भवता मृष्टाः पाखण्डिनी महोद्धनाः॥४-११६ मान्य समय (विक्रमकी दूसरी शताब्दी) के अनुकूल
सी हालतमे रत्नकरण्डकी रचना उन विद्या है और जिनका आप्रमीमामाकारकं साथ एकत्व नन्द आचार्यकं बादकी नहीं हो सकती जिनका समय
___ मानने प्रो. सा०को काई आपत्ति भी नहीं है। प्रो. साहबने ई० मन ८१६ (वि० मवत ८७३)के
रत्नकरण्डके इन मब उल्लेखोकी रोशनीम प्रो. लगभग बतलाया है।
माहबकी चौथी आपत्ति और भी नि:सार एवं (ख) रत्नकर एडम एक पद्य निम्न प्रकारसे पाया
निम्तज होजाती है और उनके द्वारा प्रन्धके उपान्त्य जाता है:
पद्यम की गई श्षार्थकी उक्त कल्पना बिल्कुल ही गृहती मुनिवमित्वा गुरुपकण्ठं प्रतानि परिगृह्य । १ जैन माहित्य भार इतिहाम पृ० ३४७मे ३६६ भैयाऽशनस्तपस्यमुत्कृष्टश्चेल-खण्ड-धरः ॥१४॥ २ कलोकाले वने वामी वय॑ने मुनिसत्तमैः ।
इसमे, ११वी प्रतिमा (कक्षा)-स्थित उत्कृष्ट श्रावक स्थापितं च जिनागारे प्रामादिप विशेषतः ॥२२ रनमाला