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अनेकान्त
[ वर्ष ९
निर्मूल ठहरती है-उमका कहीं भी कोई ममर्थन ८७)के पश्चात् और वादिगजके समय अर्थात नहीं होता । रत्नकरण्डके ममयको जान-अनजाने शक मं० ९४७ (वि. मं. १८८२)से पूर्व मिद्ध होता रत्रमालाके रचनाकाल (विक्रमकी ११वी शनास्टीक है । इम ममयावधिक प्रकाशमे रत्नकरण्डश्रावउत्तगध या उसके भी बाद)के समीप लानका आग्रह काचार और रत्नमालाका रचनाकाल समीप श्राजाते करनपर यशस्तिलकके अन्तगत सोमदेवमूरिका ४६ है और उनके बीच शताब्दियोंका अन्तराल नहीं कल्पाम वर्गित उपामकाध्ययन (वि० स० १८१६) रहता'।"
और श्रीचामुण्डरायका चारित्रमार (वि.म.१०३५के इस तरह गम्भीर गवेषण और उदार पर्यालगभग) दानां रत्नकरण्ड के पूर्ववती ठहरेगे, जिन्हें लांचनोंके साथ विचार करनेपर प्रो. साहबकी चारों किमी तरह भी रनकरण्डके पूर्ववर्ती सिद्ध नही किया दलील अथवा आपत्तियोंमसे एक भी इस योग्य नहीं जा सकता: क्याकि दाना रत्नकरण्डक कितने ही ठहरती जा रत्नकरण्डश्रावकाचार और प्राप्तमीमांसा शब्दादि के अनुसरणको लिये हुए है-चारित्रमारम का भिन्नकतृत्व सिद्ध करने अथवा दोनोंके एक ता रत्नकरण्डका 'सम्यग्दशनशुद्धाः' नामका एक कतृ त्वमे कोई बाधा उत्पन्न करनेमे ममर्थ हो सके पुरा पद्य भी 'उक्तं च रूपसे उद्धृत है। और तब और इसलिये बाधक प्रमाणाके अभाव एव साधक प्रा० माहबका यह कथन भी कि 'श्रावकाचार-विषय- प्रमाणांके सद्भावम यह कहना न्याय-प्राप्त है कि का सबसे प्रधान और प्राचीन ग्रन्थ स्वामी ममन्त
चान ग्रन्थ स्वामा समन्त. रत्नकरण्डश्रावकाचार उन्ही समन्तभद्र आचार्यका भद्रकृत रत्नकरण्डश्रावकाचार हे' उनके विरुद्ध जायगा, कति है जो प्राप्तमीमामा (देवागम)के रचयिता है । जिसे उन्होंने धवलाकी चतुथ पुस्तक (क्षेत्रस्पशन और यही मंग निर्णय है। अनु०) प्रस्तावनाम व्यक्त किया है और जिसका उन्हें उत्तरक चकरम पडकर कुछ ध्यान रहा मालमनही वीरसवामन्दिर, मरमावा। हाता और वे यहाँ तक लिख गये है कि "रत्नकरण्ड
ता०२१४१६४८ । जुगल किशोर मुख्तार की रचनाका ममय इम (विद्यानन्दममय वि० म० १ अनेकान्त वर्ष ७, किरगा ५६, पृ० ५४
अमूल्य तत्त्वविचार बद्दत पुण्यके पुञ्जमे इम शुभ मानव-देहकी प्राप्ति हुई, तो भी अरेरे । भवचक्रका एक भी चक्कर दूर नदी दृश्रा । सुग्वको प्राप्त करने मुख दूर होजाता है, इसे जरा अपने ध्यानमे लो। अहो इम क्षण-क्षणम हान वान भयङ्कर भाव-मरणम तुम क्या लवलीन हो रहे हो ? ॥शा
यदि तुम्हारी लक्ष्मी और सत्ता बढ़ गई, तो कहो तो मही कि तुम्हारा बढ ही क्या गया ? क्या कुटुम्ब परिवारक बढ़नसे तुम अपनी बढ़ती मानते हो? हगिज ऐसा मत मानो; क्योंकि ममारका बढ़ना मानी मनुष्य देहको हार जाना है । अहो ' इसका तुमको एक पलभर भी विचार नहीं होता ? ॥२॥
निर्दोष सुख और निर्दोष श्रानन्दका, जहां कहीं भी वह मिल सके वहींसे प्राप्त करो जिससे कि यह दिव्य शक्तिमान आत्मा जञ्जीरोंसे निकल सके। इस बातकी सदा मुझे दया है कि परवस्तुमे मोह नहीं करना । जिसके अन्त में दःख है उसे मुख कहना, यह त्यागने योग्य सिद्धान्त है ॥३॥
मै कौन है, कहाँस श्राया, मंरा सच्चा स्वरूप क्या है, यह सम्बन्ध किस कारणसे हुया है, उसे रक्ख या छोड़ दूँ ? यदि इन बातोंका विवेकवक शान्तभावसे विचार किया तो आत्मज्ञानके सब सिद्धान्त-तत्व अनुभवमे आगए ॥४॥
-श्रीमद्राजचन्द्र