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कथा-कहानी
इज्जत बड़ी या रुपया
[ लेखक-अयोध्याप्रसाद गोयलीय] हलीकी एक प्रसिद्ध सर्राफ्रकी दूकानपर पास गिन्नी कहाँसे आती ? उसके बड़ोंने भी कभी
४०-५० हजार रुपयोंकी गिनियाँ गिन्नियों देखी हैं जो वह देखता? और शायद कहीं
गिनी जारही थीं कि एक उचट कर से झॉप भी ली हो तो, वह इतना बुद्ध कब है जो इधर-उधर होगई। काफी तलाश करनेपर भी नही उमे हमे दे देता ?" . मिली। उस दुकानपर उनका कोई ग़रीब रिश्तेदार जब खयाल कल्पनाने साथ नहीं दिया तो यह भी बैठा हुआ था। सयोगकी बात कि उसके पास भी उलझा हुआ विचार लाला साहबके सामने पेश किया एक गिन्नी थी। गिन्नी न मिलते देख, उसने मनमे गया ! लाला साहब सब समझ गये। उनका रिश्तेसोचा कि "शायद अब तलाशी ली जायगी। गरीब दार ग़रीब तो जरूर है, पर विश्वस्त और बाइज्जत होनेके नाते मुझीपर शक जायगा। मेरे पास भी है, यह वह जानते थे। अत: लाला साहब उसके गिन्नी हो सकती है किमीको यकीन नही आयगा। पास गये और वास्तविक घटना जाननी चाही तो गिन्नी भी छीन लेगे और वेइज्जत भी करेंगे। इससे तो काफी टालमटोलके बाद ठीक स्थिति समझादी। बहतर यही है कि गिन्नी देकर इज्जत बचाली जाए।" लाला माहब गिन्नी वापिम करने लगे तो बोलाग़रीबन यही किया ! जेबमेसे गिन्नी चुपकेसे
सोगिकी चपसे "भैया साहब, मै अब इसे लेकर क्या करूँगा? निकाल कर ऐमी जगह डाल दी कि खोजनेवालोंको मेरी उस वक्त आबरू रह गई यही क्या कम है? मिल गई। गिन्नी देकर वह खुशी-खुशी अपने घर आबरूकं लिये ऐसी हजारों गिनियाँ कुर्वान ! मेरे चला गया ' बात आई-गई हुई। गया।बात आई-नाई हुई।
भाग्यमे गिन्नी होती तो यह घटना ही क्यों घटती ? दीवालीपर दावात माफ की गई तो उसमसे एक
मुझे सन्तोप है कि मेरी बात रह गई। रुपया तो
हाथका मैल है फिर भी इकट्ठा हो सकता है, पर गिन्नी निकली । गिन्नीको दावातमसे निकलते देख ।
इज्जत-भाबरू वह जानेपर फिर वापिस नहीं भाती।" लाला साहब बड़े ऋद्ध हए । “रुपयोंकी तो बिमात क्या, यहाँ गिन्नियों इधर-उधर रूली फिरती है, फिर भी रोकड़बहीका जमा खर्च ठीक मिलता रहता है। कुछ इमीमे मिलती-जुलती घटना इन पकियोंके हद होगई इम अन्धेरकी।"
लेखककं माथ भी घटी । मन १९२०मे लाला रोकड़िया परेशान कि यह हुआ तो क्या हुआ? नारायणदास सुरजभानकी दुकानपर कपड़का काम "इतनी सचाई और लगनसे हिसाब रखनेपर भी मीग्यता था। उनके यहाँ हण्डियोंका लेन-देन भी यह लाँछन व्यर्थमे लग रहा है।" मोचते-मोचते होता था। दिनमे कई बार दलाल रुपये लाता और उसे उस रोजकी घटना याद आई। काफी देर अलमे ले जाना । बार-बार उन चाँदीक रुपयों को कौन गिने? कुश्ती लड़नेपर उसे नयाल आया कि "कहीं वह गिन्नी बगैर गिने ही श्राने और चले जाते। उन रुपयोंको उचट कर दाबानमे तो नहीं गिर गई थी, तब वह में ही लेता और देता; कभी एक रुपयकी भी घटी. मिश्री मिली कैसे? शायद उम ग़रीबने अपने पाममे बढ़ी नहीं हुई। एक रोज अमावधानीसे वह रुपये डालकर खुजवादी हो।" यह खयाल आते ही वह ऊपरसे नीचे गिर पड़े और खन-खन करते हुए स्वय अपनी इम मूखतापर हम पड़ा। भला उसके ममूची दुकानमे बिम्बर गये । बटोर कर गिने तो
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