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अनेकान्त
पाँच रुपये कम ! मेरी जेब मे भी घर खर्चके लिये ५) रुपये चाँदीके पड़े थे। मैं बड़ा चकराया, अब क्या होगा ? न मिले तो जैसे बात बनेगी ? लाला चुपचाप गद्दी पर बैठे थे, मैंने ही रुपयं बखेरे थे और मैं ही उन्हें गिन रहा था। जी बड़ा धुकड़-पकड़ करने लगा। छोटी आयु और नया-नया इनके यहाँ आया हैं। यद्यपि पूरा विश्वास करते है, परन्तु प्रामाणिकता - की जाँच से तो अभी नही निकला हैं। कहीं इन्हें शक होगया तो, जेब मे पाँच रुपये है ही चोर बनते क्या देर लगेगी ? इसी ऊहापोहमे गिन्नी वाली घटना याद आई तो मन एकदम स्वस्थ्य होगया। रुपये अपने पास से मिलानेका सङ्कल्प करके भी खोजने में लगा रहा और मेरे सौभाग्य से पाँचों रुपये मिल भी गये !
[ वर्ष ९
हैं तो हमारे यहाँ ही ठहरते हैं । एक रोज उनका पत्र आया कि "जिस चारपाईपर मैं सोया था, अगर वहाँ लाल रङ्गका मेरा अङ्गोछा मिले तो सम्हाल कर रख लेना । " अँगोछा तलाश किया गया, मगर नहीं मिला। वे जाड़ोंके विस्तरोंमे सोचते थे और वह जाड़े खत्म होनेसे ऊपर टाँडपर रख दिये गये थे । सिर्फ एक अङ्गीछे के लिये घरभरके इतने विस्तरे उठा कर देखने की जरूरत नहीं समझी गई । और
रुपये मिलने पर मुझे प्रसन्नता होनेके बजाय क्रोध हो आया ! मैंन लाला से कहा - "देखिये पाँच रुपये कम हो रहे थे और मेरी जेब मे भी पाँच ही थे ! न मिलते तो मै चार बन गया था। आइन्दा हुडियोंके रुपये गिनकर लेने और देने चाहियें।" लाला मेरे इस बचपने पर हंसे और बोले - "तुम व्यर्थ अपने जीका हलका क्यों कर रहे हो तुमपर यकीन न होता तो हम यह हजारों रुपये तुम्हें कैसे बिन गिन दे दिया करते ? और इतने रुपये बार-बार गिनना कैसे मुमकिन हो सकता है ? आजतक बीच एक पैसका फर्क न पड़ा तो आगे क्यों पड़ेगा, और पड़ेगा भी तो तुम्हे उसकी चिन्ता क्यों ?"
किन्तु मै इस घटना से ऐसा शङ्कित होगया कि रुपये गिनकर लेने-देने की बातपर अड़ा रहा। और इस नियम की स्वीकृति न मिलनसे मै बारबार पुचकारनेपर भी दूसरे दिनसे दूकानपर नही गया ! ३
उक्त घटनाओ का मन ३४ मे गुड़गॉवके लाला बनारसीदास जैनके सामने जिक्र आया तो बोलेअजी साहब, एक इसी तरह की घटना हम आपबीती आपको सुनाते है ।
हमारे पिताजीके एक मित्र हमारे जिलेमें रहते हैं । बे जब मुक़दमे या सामान खरीदनेको गुड़गाव आते
ङ्गोछा नहीं मिलने की उन्हें सूचना भिजवादी गई । बात आई-गई हुई, वे हमेशा की तरह हमारे यहाँ आते-जाते रहे ।
दीवालीपर मकानकी सफाई हुई और जाड़ोंके बिस्तरे धूपमे डाले गये तो उनमें लाल श्रङ्गोछा धमसे नीचे गिरा । खोलकर देखा तो दस हज़ारकं नोट निकले। हम सब हैरान कि यह इतने नोट कहाँसे आये, किसने यहाँ छिपाकर रखे। सोचतेसोचते स्याल आया कि हो न हो यह रुपये उनके ही होंगे। इस छेमे रुपये थे इसीलिये तो उन्होंन अङ्गोछा तलाश करके रखनेको लिखा था, सिर्फ अङ्गोछेके लिये वे क्यों लिखते ? मैं उनके पास रुपये लेकर गया और उलाहना देते हुए बोला- "चाचा जी आप भी खूब है, इतनी बड़ी रकमका तो जिक्र भी नहीं किया, सिर्फ अङ्गोछा सम्हालकर रखलेने का लिख दिया और हमारे मना लिख देनेपर भी आपने कभी इशारा तक नहीं किया। बनाइये कोई नौकर ले गया होता तो टांडपर चूहे ही काट गये होते तो, हमारा तो हमेशाको काला मुंह बना रहता ।
चचा हँसकर बोले--" भाई जितनी बात लिखने की थी, वह तो लिख ही दी थो। मेरा स्नयाल था कि तुम समझ जाओगे कि कोई न कोई बात ज़रूर है । वर्ना दो आनेके पुराने अङ्गालेके लिये दो पैसेका कार्ड कौन खराब करता और रुपयोंका जिक्र जानबूककर इसलिये नहीं किया कि अगर कोई उठा ले गया होगा तो भी तुम अपने पासमे दे जाओगे । अपनी इस असावधानीके लिये तुम्हे परेशानी में डालना मुझे इष्ट न था । " १३ फरवरी १६४८