SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 158
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३६ अनेकान्त [वर्ष ९ ___ इन दोनों बाधाओंके सिवाय श्लेषकी यह कल्पना होजाता है कि वह रचना न केवल पूज्यपादसे अप्रामङ्गिक भी जान पड़ती है, क्योंकि रत्नकरण्डके पश्चात्कालीन हैं, किन्तु अकलङ्क और विद्यानन्दिमे भी माथ उसका कोई मेल नहीं मिलना, रत्नकरण्ड पीछेकी है" कोरी कल्पनाके सिवाय और कुछ भी तत्त्वार्थसूत्रकी कोई टीका भी नहीं जिमम किमी नहीं है। उसे किसी तरह भी युक्तिमङ्गत नहीं कहा तरह खींचतान कर उसके साथ कुछ मेल बिठलाया जा मकता-रत्नकरण्ड के 'अप्नापज्ञमनुल्लंघ्य' पद्यका जाता, वह तो आगमकी ख्यातिको प्राप्त एक म्वतन्त्र न्यायावतारमे पाया जाना भी इसमें बाधक है। वह मौलिक ग्रन्थ है, जिसे पूज्यपादादिकी उक्त टीकाओंका केवल उत्तरके लिये किया गया प्रयासमात्र है और कोई आधार प्राप्त नहीं है और न हो सकता है। इमीसे उमको प्रस्तुत करते हुए प्रो० साहबको अपने और इमलिये उसके साथ उक्त शेषका आयोजन पूर्व कथनके विरोधका भी कुछ खयाल नहीं रहा; एक प्रकारका अमम्बद्ध प्रलाप ठहरता है जैमा कि मै इससे पहले द्वितीयादि आपत्तियों के अथवा यों कहिये कि विवाह तो किमीका और गीत विचारकी भूमिकामे प्रकट कर चुका है। किमीके' इम उक्तिको चरितार्थ करता है। यदि विना यहॉपर एक बात और भी प्रकट कर देनेकी है सम्बन्धविशेष कवल शव्दछलको लेकर ही शेपकी और वह यह कि प्रो० माहब भंपकी कल्पनाके बिना कल्पना अपने किमी प्रयोजनके वश की जाय और उक्त पद्यकी रचनाको अटपटी और अस्वाभाविक उसे उचित समझा जाय नब तो बहुत कुछ अनोंक समझते है, परन्तु पद्यका जो अथ ऊपर दिया गया मङ्घटित होने की सम्भावना है । उदाहरणके लिय है और जो श्राचार्य प्रभाचन्द्र-मम्मत है उसस पद्यकी म्वामिममन्तभद्र-प्रणीत 'जिनशनक'के उपान्त्य पद्य रचनामे कही भी कुछ अटपटापन या अस्वाभाविकता (नं. ११५)में भी 'प्रतिकृतिः सर्वार्थसिद्धि परा' इम का दशन नही होता है। वह विना किमी लंपकल्पनाक वाक्यक अन्तर्गत 'मार्थमिद्धि' पदका प्रयोग पाया ग्रन्थक पूर्व कथनके साथ भले प्रकार सम्बद्ध होता जाता है और ६४वे पद्यमे तो 'प्राप्य मर्वाथसिद्धि गां' हुआ ठीक उसके उपसंहाररूपमे स्थित है। उमम इम वाक्यक माथ उमका रूप और स्पष्ट होजाता है, प्रयुक्त हुए विद्या, दृष्टि जैसे शब्द पहले भी ग्रन्थम उसके साथ वाले 'गा' पदका अर्थ वाणी लगा लेनेमे ज्ञान-दशन जैस अमि प्रयुक्त हुए है, उनके अर्थमे वह वचनात्मिका 'मसिद्धि' होजाती है। इस प्रो० साहबको कोई विवाद भी नही हैं। हाँ, 'विद्या' 'सर्वार्थसिद्धि'का वाच्यार्थ यदि उक्त श्लेषार्थकी तरह से शेषरूपमे 'विद्यानन्द' अर्थ लेना यह उनकी निजी पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धि लगाया जायगा तो स्वामी कल्पना है, जिसके समर्थनमे कोई प्रमाण उपस्थित ममन्तभद्रको भी पूज्यपादके बादका विद्वान कहना नही किया गया, केवल नामका एक देश कहकर उस होगा और तब पूज्यपादके 'चतुष्टय समन्तभद्रम्य' इम मान्य कर लिया है। तब प्रो० साहबकी दृष्टिमे व्याकरणसुत्रम उल्लिखित ममन्तभद्र चिन्ताक विषय .. बन जायेगे तथा और भी शिलालेखों, प्रशस्तियों १ जहाँतक मुझे मालूम है सस्कृत साहित्यम श्लेषरूपम तथा पट्रावलियों आदिकी कितनी ही गड़बड़ उपस्थित नामका एकदेश ग्रहण करते हुए पुरुषके लिये उसका हो जायगी। अतः मम्बन्धविशेषको निर्धारित किये पुल्लिग अशोर स्त्रीके लिये स्त्रीलिग अश ग्रहण किया विना केवल शब्दोंके समानार्थको लेकर ही शेषार्थको जाता है, जैसे 'मत्यभामा' नामका स्त्रीके लिये 'भामा' कल्पना व्यर्थ है। अंशका प्रयोग होता है न कि 'मत्य' अंशका । इसी तरह इस तरह जब श्लेषाथ ही सुघटित न होकर 'विद्यानन्द' नामका विद्या' ग्रंश, जो कि स्त्रीलिग है, पुरुपके बाधित ठहरता है तब उसके आधारपर यह कहना लिये व्यवहृत नहीं होता। चुनांचे प्रो० साहबने श्लेपके कि "रत्नकरण्ड के इस उल्लेखपरसे निर्विवादत: सिद्ध उदाहरणरूपमे जो 'देव स्वामिनभमल विद्यानन्द प्रणम्य
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy