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किरण
रत्नकरण्डके कतृ त्व-विषयम मेग विचार और निर्णय
किया है। मर्वार्थसिद्धि कहीं शब्दशः और कहीं बाधा जब प्रो० साहबके सामने उपस्थित की गई और अर्थत: अकलङ्ककृत राजवार्तिक एवं विद्यानन्दिकृत पूछा गया कि 'त्रिषु विष्टपेषु' का श्लेषार्थ जो 'तीनों श्लोकवार्तिकमे प्रायः पूरी ही प्रथित है। अत: जिसने स्थलोपर' किया गया है वे तीन स्थल कौनसे हैं अकलङ्ककृत और विद्यानन्दिकी रचनाओंको हयङ्गम जहाँपर मर्व अर्थकी सिद्धिरुप 'मर्वार्थमिद्धि' स्वय कर लिया उसे मर्वार्थसिद्धि स्वयं आजाती है। रत्न- प्राप्त होजाती है? तब प्रोफेमर माहव उत्तर देते हुए करएटके इम उल्लेखपरसे निर्विवादतः सिद्ध होजाता लिखते हैहै कि यह रचना न केवल पूज्यपादसे पश्चात्कालीन "मंग खयाल था कि वहाँ तो किसी नई है, किन्तु अकलङ्क और विद्यानन्दिसे भी पीछेकी ___ कल्पनाकी आवश्यकता ही नहीं क्योंकि वहाँ उन्हीं है'।" मी हालतमे "ग्नकरण्डकारका पानमीमांमा तीन स्थलोंकी मङ्गति सुम्पष्ट है जो टीकाकारने बतला के कसि एकत्व सिद्ध नहीं होता।"
दिय है अर्थात् दर्शन, ज्ञान और चारित्र; क्योंकि व
तत्वार्थसूत्रक विषय होनेमे सर्वार्थसिद्धिम तथा अकयहाँ प्रो० माहब-द्वारा कल्पित इस श्लेपार्थके
लङ्कदेव और विद्यानन्दकी टीकाओंम विचित हैं मुर्धाटत होनम दो प्रबल बाधाएं है--- एक तो यह कि जब 'वीतकलक' से अकलकका और विद्यास विद्या
और उनका ही प्ररूपण रत्नकरण्डकारने किया है।"
यह उत्तर कुछ भी मङ्गत मालम नहीं होता; नन्दका अर्थ ललिया गया तब 'दृष्टि' और 'क्रिया' दो
क्योकि टीकाकार प्रभाचन्द्रन 'त्रिपु विष्टयेपु' का स्पष्ट ही रत्न शेप रह जाते है और वे भी अपने निर्मलनिर्दाप अथवा सम्यक जैसे मौलिक विशेषणसंशून्य।
अर्थ 'त्रिभुवनपु' पदके द्वारा 'तीनों लोकमे दिया है।
उसके स्वीकार की घोषणा करते हुए और यह आश्वाएसी हालतम श्लपार्थक साथ जो "निर्मल ज्ञान" अर्थ
सन देते हुए भी कि उस विषयमे टीकाकारसे भिन्न भी जोड़ा गया है वह नही बन मकगा और उसके
"किसी नई कल्पनाकी आवश्यकता नहीं" टीकाकारन जोड़नेपर वह श्लेषार्थ ग्रन्थ-सन्दभके साथ
का अर्थ न देकर 'अर्थात' शब्दकं माथ उसके अर्थअमङ्गत हो जायगा; क्योंकि ग्रन्थभरमे तृतीय पद्यसे
की निजी नई कल्पनाको लिये हुए अभिव्यक्ति करना प्रारम्भ करके इस पद्यक पूर्व तक सम्यकदशन-ज्ञान
और इस तरह 'त्रिभुवनेषु' पदका अर्थ "दर्शन, ज्ञान चारित्ररूप तीन रत्नोंका ही धर्मरूपसे वणन है, जिस
और चारित्र" बतलाना अथका अनर्थ करना अथवा का उपमहार करते हुए ही इम उपान्त्य पद्यम उनको
ग्वीचतानकी पराकाष्ठा है। इससे उत्तरकी मनि अपनानेवालेके लिये सर्व अथकी सिद्धिरूप फलकी
और भी बिगड़ जाती है; क्योंकि तब यह कहना नहीं व्यवस्था की गई है। इसकी नरफ किसीका भी ध्यान
बनता कि सर्वार्थसिद्धि आदि टीकाओंम दर्शन, ज्ञान नहीं गया। दूसरी बाधा यह है कि 'त्रिपु विष्यपु'
और चारित्र विवेचित है-प्रतिपादिन है, बल्कि यह पदोंका अर्थ जो "तीनों स्थलोपर" किया गया है वह
कहना होगा कि दर्शन, ज्ञान और चात्रिमे मवार्थसङ्गत नही बैठता: क्योंकि अकलकदेवका राज
मिद्धि आदि टीकाएं विवेचित है-प्रतिपादित है, वार्तिक और विद्यानन्दका श्लोकवार्तिक प्रन्थ ये दो
जो कि एक बिल्कुल ही उल्टी बात होगी। और इस ही स्थल ऐसे है जहाँपर पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धि
तरह आधार-आधेय सम्बन्धादिकी सारी स्थिति (तत्त्वार्थवृनि) शब्दशः तथा अर्थत: पाई जाती है,
बिगड़ जायगी; और तब श्रुपपमे यह भी फलित तीसरे स्थल की बात मुलके किमी भी शब्दपरम उस
नहीं किया जा सकेगा कि अकलङ्क और विद्यानन्दकी का आशय व्यक्त न करने के कारण नहीं बनती। यह
टीकाएँ ऐसे कोई स्थल या स्थानविशेष हैं जहाँपर १ अनेकान्त वर्ष ७ किरण ५.६ पृ० ५३
पूज्यपादकी टीका सर्वार्थाद्धि म्वय प्राप्त होजाती है। २ अनेकान्त वर्ष = किरण ३ पृ. १३२
१ अनेकान्त वर्ष, किरण ३ पृ० १३०