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________________ १३४ अनेकान्त | वर्ष ९ द्वितीयको "एक ही व्यक्ति" प्रतिपादन किया था। सकते' जिनमें वे पद्य सम्मिलित न हों। इसपरसे कोई भी यह फलित कर सकता है कि जिन इस नरह प्रो० माहबकी तीसरी आपत्तिमे कुछ ममन्तभद्रके माथ 'स्वामी' पद लगा हुआ हो उन्हे भी सार मालूम नहीं होता। युक्तिके पूर्णतः सिद्ध न प्रो० साहबके मतानुमार प्राप्तमीमाका कर्ता समझना होनेके कारण वह रत्नकरण्ड और श्राप्तमीमामाके चाहिये। तदनुमार ही प्रो० साहबके सामने, रत्न- एककत त्वमे बाधक नहीं हो सकती, और इसलिये करण्डकी टीकाका उक्त प्रमाण यह. प्रदर्शित करनेके उसे भी समुचित नहीं कहा जा मकता । लिये रक्खा गया कि जब प्रभाचन्द्राचार्य भी रत्न- (४) अब रही चौथी आपत्तिकी बात; जिसे प्रो० करण्डको स्वामी समन्तभद्रकृत लिख रहे हैं और माहबने रत्नकरण्डके निम्न उपान्त्य पद्यपरसे कल्पिन प्रो० साहब 'स्वामी' पदका असाधारण सम्बन्ध करके रक्खा है-- श्राप्तमीमांकारके साथ जोड़ रहे है तब वे उसे येन स्वयं वीतकलङ्क-विद्या-दृष्टि-क्रिया-रनकरण्डभावं । आममीमामाकारसे भिन्न किसी दूसरे समन्तभद्रकी नीतम्तमायाति पतीच्छयेव सर्वार्थसिद्धिस्त्रिविष्टपेषु ॥ कृति कैसे बतलाते हैं । इसके उत्तरमें प्रो० साहबने इम पद्यमे प्रन्थका उपमहार करते हुए यह लिग्वा है कि "प्रभाचन्द्रका उल्लेख केवल इतना ही लो बनलाया गया है कि 'जिस (भव्यजीव)ने आत्माको है कि रत्नकरण्डके कर्ता स्वामी ममन्तभद्र हैं उन्होंने निर्दोष विद्या, निर्दोष दृष्टि और निर्दोष क्रियारूप यह तो प्रकट किया ही नहीं किये ही रत्नकरण्डके कर्ना रनोंक पिटारेके भावी परिणन किया है-अपने प्राप्तमीमामाके भी रयिता हैं' ।” परन्तु साथम श्रआत्मामे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और मम्यकचारित्रलगा हुआ 'स्वामी' पद तो उन्हीके मन्तव्यानुसार रूप रत्नत्रय धर्मका आविर्भाव किया है-उसे तीनों उमे प्रकट कर रहा है यह देखकर उन्होंने यह भी लोकोंगे मर्वार्थमिद्धि-धर्म-अर्थ-काम-मोक्षरूप मभी कह दिया है कि 'रत्नकरण्डकं कर्ता समन्तभद्रक प्रयोजनोंकी सिद्धि-स्वयंवरा कन्याकी तरह स्वय साथ 'स्वामी' पद बादको जुड़ गया है-चाहे उसका प्राप्त होजाती है, अर्थात उक्त सर्वार्थसिद्धि उसे कारण भ्रांति हो या जानबूझकर ऐसा किया गया हो।' स्वेच्छासे अपना पति बनानी है, जिसमें वह चारों परन्तु अपने प्रयोजनके लिये इस कह देने मात्रसे पुरुषार्थोंका म्वामी होता है और उसका कोई भी कोई काम नहीं चल सकता जब तक कि उसका कोई प्रयोजन सिद्ध हुए बिना नहीं रहता।' प्राचीन आधार व्यक्त न किया जाय-कमसे कम इम अर्थको स्वीकार करते हुए प्रो० माहबका प्रभाचन्द्राचार्यसे पहले की लिखी हुई रत्नकरण्डकी जो कुछ विशेष कहना है वह यह है-- कोई ऐसी प्राचीन मूलप्रति पेश होनी चाहिये थी "यहाँ टीकाकार प्रभाचन्द्रके द्वारा बतलाये गये जिममे समन्तभद्र के साथ स्वामी पद लगा हश्रा न वाच्यार्थके अतिरिक्त श्लेषरूपसे यह अर्थ भी मुझे हो। लेकिन प्रो० साहबने पहले की ऐसी कोई भी स्पष्ट दिखाई देता है कि “जिसने अपनेको अकलङ्क प्रति पेश नहीं की तब वे बादको भ्रान्ति आदिके और विद्यानन्दकं द्वारा प्रतिपादित निर्मल ज्ञान, दर्शन वश स्वामी पदके जड़नेकी बात कैसे कह सकते और चारित्ररूपी रत्नोंकी पिटारी बना लिया है उसे है ? नहीं कह सकते, उसी तरह जिस तरह कि तीनों स्थलोंपर मर्व अर्थोकी सिद्धिरूप सर्वार्थसिद्धि मेरे द्वारा सन्दिग्ध करार दिये हुए रत्नकरण्डकं स्वयं प्राप्त हो जाती है, जैसे इच्छामात्रसे पतिको मात पद्योंको प्रभाचन्द्रीय टीकासे पहलेकी ऐसी अपनी पत्नी।" यहाँ निःसन्देहतः रत्नकरण्डकारने प्राचीन प्रतियोंके न मिलनेके कारण प्रक्षिप्त नहीं कह तत्त्वार्थसूत्रपर लिखी गई तीनों टीकाओंका उल्लेख --------- ----- १ अनेकान्त वर्ष ६, किरण १ पृ० १२पर प्रकाशित प्रो. १ अनेकान्त वर्ष८, किरण ३, पृ० १२६ । साहबका उत्तर पत्र ।
SR No.538009
Book TitleAnekant 1948 Book 09 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1948
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size35 MB
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