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फिरण ३]
रत्नकरण्डके कतृत्व-विषयमें मेरा विचार और निर्णय
जाता है कि रत्नकरण्डमे भी योगीके लिये यति' लिये जबतक जैनसाहित्यपरसे किसी ऐसे दूसरेसमन्तशब्दका प्रयोग किया गया है । इमके सिवाय, अक- भद्रका पता न बतलाया जाय जो इस रत्नकरण्डका कर्ता लङ्कदेवने अष्टशती (देवागम-भाष्य)के मङ्गल-पदामे होसके तब तक 'रनकरण्ड'के कर्ताक लिये 'योगीन्द्र प्राप्तमीमामाकार स्वामी समन्तभद्रको 'यति' लिखा विशेषणके प्रयोग-मात्रसे उसे कोरी कल्पनाके है। जो मन्मार्गमे यत्नशील अथवा मन-वचन-कायके श्राधारपर स्वामी ममन्तभद्रमे भिन्न किसी दृमरे नियन्त्रणरूप योगकी साधनामे तत्पर योगीका ममन्तभद्र की कृति नहीं कहा जा सकता। वाचक है, और श्रीविद्यानन्दाचार्यन अपनी अष्ट- ऐमी वस्तुस्थितिमे वादिराजके उक्त दोनों पद्योंसहस्रीमे उन्हें 'यतिभृत' और 'यतीश' तक लिखा को प्रथम पद्यके साथ स्वामिसमन्तभद्र-विषयक है, जो दोनों ही 'योगिराज' अथवा 'योगीन्द्र' अर्थ- समझने और बतलानेमे कोई भी बाधा प्रतीत नहीं के द्योतक है, और 'यतीश'के साथ 'प्रथिततर' होती' । प्रत्युत इमके, वादिराजके प्रायः ममकालीन विशंपण लगाकर तो यह भी सूचित किया गया है विद्वान् आचार्य प्रभाचन्द्रका अपनी टीकामे 'रत्रकि वे एक बहुत बडे प्रसिद्ध योगिराज थे। ऐसही करण्ड' उपासकाध्ययनको माफ तौरपर म्वामी उल्लेखोंका दृष्टिम रखकर वादिराजने उक्त पद्यम ममन्तभद्रकी कृति घोषित करना उसे पुष्ट करता है। 'समन्तभद्र के लिये 'योगीन्द्र' विशेषणका प्रयोग किया उन्होंने अपनी टीकाकं केवल मधि-वाक्योंमे ही जान पडना है । ओर इलिये यह कहना कि 'ममन्तभद्रस्वामि-विचित' जैसे विशेषणों-द्वारा वैमी 'ममन्तभद्र योगी नही थे अथवा योगीरूपसे उनका घोपणा नहीं की बल्कि टीकाकी आदिम निम्न कहीं उल्लेख नहीं' किमी तरह भी ममुचित नहीं कहा प्रस्तावना-वाक्य-द्वारा भी उसकी स्पष्ट सूचना की हैजा सकता । रनकरण्डकी अब तक एमी कोई प्राचीन "श्रीसमन्तभद्रस्वामी रत्नानां रक्षणापायभूनरन्नप्रति भी प्रो० माहबकी तरफसे उपस्थित नहीं की गई करण्डकप्रख्यं मम्यग्दर्शनादिगनानां पालनापायभूतं जिमम ग्रन्थकर्ता 'योगीन्द्र' नामका कोई विद्वान् रत्नकरण्डकाख्यं शास्त्र कतकामो निविघ्ननः शास्त्रपारलिखा हो अथवा स्वामी समन्तभद्रमे भिन्न दूसरा ममाप्त्यादिकं फलमभिलपत्रिदेवताविशेष कोई ममन्तभद्र उसका कता है एमी स्पष्ट सूचना नमम्वन्नाह ।" माथमे की गई हो।
हाँ, यहाँपर एक बात और भी जान लेनेकी है समन्तभद्र नामक दूसरे छह विद्वानोंकी खोज
| खाज और वह यह कि प्रो० साहबने अपने विलुप्त अध्याय' करके मैन उसे रनकरण्डश्रावकाचारकी अपनी में यह लिखा था कि "दिगम्बरजैन माहित्यम जो प्रस्तावनामे आजसे कोई २३ वर्षे पहले प्रकट किया प्राचार्य स्वामीकी उपाधिसे विशेषतः विषित किये था--उमक बादमे और किमी समन्तभद्रका अब तक
गय है वे आप्तमीमांसाकं कर्ता ममन्तभद्र ही कोई पता नहीं चला। उनमसे एक 'लघु', दुमरे है" और आगे श्रवणबेलगोलकं एक शिलालेखम 'चिक', तीसरे गेममोप्पे', चौथे 'अभिनव', पाँचव
भद्रबाहु द्वितीयके साथ 'स्वामी' पद जुड़ा हुआ देख'भट्टारक', छठे 'गृहस्थ' विशेपणसे विशिष्ट पाये जाते
कर यह बतलाते हुए कि "भद्रबाहकी उपाधि स्वामी है। उनमेमे कोई भी अपने ममयादिककी दृष्टिम थी जो कि साहित्यम प्रायः एकान्तत: ममन्तभद्रके 'रत्नकरण्ड'का कतो नहीं हो सकता' । और इम
" लिये ही प्रयुक्त हुई है," समन्तभद्र और भद्रबाहु १ "येनाचार्य समन्तभद्र-यतिना तस्मै नमः संततम।"
१ सन् १६१२म तजोरसे प्रकाशित होनेवाले वादिगजके २ "स श्रीस्वामिसमन्तभद्र यतिभृद्-भयाद्विभुर्भानुमान् ।”
___ 'यशोधर-चरित'की प्रस्तावनाम, टी. ए. गोपीनाथराव "स्वामी जीयात्स शश्वत्प्रथिततरयतीशोऽकलवारकीर्तिः।" ३माणिकचन्द्र-ग्रन्थमालाम प्रकाशित रत्नकरगहश्रावकाचार
एम. ए. ने भी इन तीनों पद्योको इमी क्रमके माध प्रस्तावना पृ० ५से ६।
समन्तभद्रविषयक सूचित किया है।